अब तक हम बहुत दूर निकल आए हैं- गांधी के रास्ते से। यह भटकाव नही,जान-बूझकर इरादतन किया गया विचलन है। भटकाव में संयोग या नियति एक प्रमुख कारक है, विचलन में सोच-समझकर अपनाया गया तरीका शामिल है। गांधी के साथ हम चले ही कितनी दूर। देश की राजनीतिक आजादी का मक़सद पूरा करने भर के लिए हमारे समय ने पैदा किया था गांधी को। वह अपने समय की पृष्ठभूमि की उपज थे। उनके जैसा बनने के पीछे सैकड़ों सालो की वैचारिक संस्कृति तैयारी करनी पड़ी थी ,समय को। वह समय विरासत में पीढ़ी दर पीढ़ी मिली दृष्टि से निर्मित हुआ था। उसमें हमारा सामूहिक संघर्ष, समझ और त्याग से बनी ज्ञान परम्परा शामिल थी। पृथ्वी पर मानवीय सभ्यता के स्वाभाविक विकास क्रम में मनुष्य ने ज्ञान की अक्षुण्य धारा से जो कुछ भी पाया था, भारत ने उसे गांधी के रूप में पैदा किया। बुद्ध, ईसा और सुकरात की तरह ही गांधी अपने जीवन-काल में व्यक्ति से विचार में बदल गए थे। अंग्रेजी दासता से राजनीतिक आजादी मिलने के छः महीने के भीतर हमने उनकी हत्या की। ईसा और सुकरात की तरह हमने भी गांधी को उनकी स्वाभाविक मृत्यु तक जिन्दा रहना स्वीकार नहीं किया।
हर किस्म की हिंसा और नफरत से मुक्ति के बिना मुनष्यता अपना लक्ष्य कभी पा नहीं सकती। भारत अपने माथे पर लगे गांधी-हत्या का कंलक कभी धो नहीं सकता। उनकी हत्या, व्यक्ति के साथ उस विचार की हत्या है जिसमें हम मनुष्य होना स्वीकार करते हैं। मनुष्य होने से इन्कार में आदमी के भीतर गुफा-काल की वह जंगली बर्बरता प्रकट होती है, जिसमें असहमति से पैदा हुई नफ़रत किसी का खून करने पर आमादा हो जाती है। किसी व्यक्ति या विचार से सहमति अस्वाभाविक नहीं है। किन्तु इसके कारण उसकी हत्या को क्या उचित कहा जा सकता है? तो फिर जब-तब क्या हम गांधी की हत्या को जायज ठहराने की हिमाक़त नही करते? सचमुच हमारा यह मनोविज्ञान कितना चैकाने वाला है। साम्प्रदायिक उन्माद में हत्या और जगद्गुरू होने का दम्भ दोनो को साधने में माहिर। आज यह विचार करने की क्या जरूरत नहीं कि आखिर सभ्यता के प्रथम पुरुष होने के अहम् का हमारा यह कौन सा मनोविज्ञान है जिसमें ‘हत्या’ और ‘पूजा’ के धुर विरोधी आवेगों के बीच हम जीने के अभ्यस्त और अभिशप्त हो जाते हैं। हर तरह की हिंसा व खून से लथपथ, ईष्र्या, द्वेष, छल और छ्दम में आंकठ डूबे हम गांधी को न भूल पा रहे हैं, न हत्या को जायज ठहराना बंद कर रहे हैं | क्या हम वस्तुतः मनुष्य विरोधी राजनीति और उन्माद के जहर से आज भी मुक्त है?
किन्तु आज भी गांधी को रटा जा रहा है। क्यों? सम्भवतः इसलिए कि हमारे भीतर अन्ध स्वार्थ की निर्लज्ज प्रवृति गहरे तक पैठ गई है। स्वार्थ में गले तक डूबे हम हर किसी चाहे-अनचाहे नाम का जाप करने, खुद को व दूसरों को धोखे में रखने के आदी हैं। हम इस छल में बेशर्मी की हद तक जीने के अभ्यस्त हैं। धोखे का यह मकड़जाल हमने खुद बुना है। अफ़सोस कि इसमें जानबूझकर फॅसने के बावजूद हम इस सच्चाई का अहसास भी नहीं करते। ईश्वर से गांधी तक हम इसी नाम-जप की अंधभक्ति के शिकार हैं। गांधी के देश में गांधी को अन्ध श्रद्धा या अतार्किक विरोध के दो छोरों के बीच आज भी छला जा रहा है। गांधी के जीवन काल में ही जिन लोगों ने उन्हें महात्मा कहा उनके नाम से मंदिरों तक का निर्माण किया, सत्ता और सम्पत्ति का पीढ़ी दर पीढ़ी उपभोग किया उन्होने क्या गांधी को कहीं का रख छोड़ा है? गांधी की हत्या से क्या उनके जीवन मूल्यों की हत्या कम जघन्य है?
एक समाज के रूप में यदि हम किसी से प्रभावित भी हुए तो केवल बातों के स्तर पर। प्रभाव को आचरण तक आना हमें कभी नही सुहाया। व्यक्ति के जीवन-मूल्यों से हमारी निष्ठा कभी नहीं बन पाई। हमारे सरोकार जुबानी जमा खर्च तक सीमित रहे। आज तक गांधी के साथ हमारा व्यवहार कुछ इसी तरह का है। वह हमारे लिए रंगीन कागजी नोटों पर छपने-छपाने, मंच से प्रवचन देने, घोषणापत्रों पर छापकर सत्ता हथियाने, खादी के कपड़े पहनकर राजनीतिक भ्रष्टाचार करने सरकारी- गैर सरकारी दफ़्तरों, पुस्तकालयों, डाक टिकटों, लिफाफों व बैनरों पर टंगने की वस्तु-चित्र मात्र बनकर रह गए। आज उनके नाम और किए गए काम की दलाली खाना हमारा जन्म जात पेशा बन गया है। गांधी के साथ हमारे व्यवहार का यह छल गांधी से अधिक अपने आप से धोखा है। उनके नाम से हमने खुद को छला है! आज भी हम गली-मोहल्ले, स्कूल, अस्पताल शहर, सड़क, भवन, योजना, पुल, कारखाना, संस्था, संस्थान या पुरस्कार उनके नाम से नत्थी कर रहें हैं और वहाँ हर किस्म का भ्रष्टाचार कर रहे हैं। राष्ट्रपिता को यह कैसी श्रद्धांजलि है? आजादी के बाद हमारा समाज और राजनीति जिस राह पर चल पड़ी है, क्या वह गांधी का रास्ता है? भोगवाद की जिस चढ़ाई पर हम आ पहुंचे है, पीछे लौटना मुश्किल और आगे गहरी खाई है। गांधी ने कहा था ‘‘पश्चिम आत्म हत्या की कगार पर खड़ा है। भारत यदि खुद को बचा सका, वह पूरी दुनिया को बचा लेगा।’’
आजादी के बाद हमने राष्ट्रीय राजनीति की जो राह पकड़ी उसने सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है। सत्ता और सम्पत्ति के लिए हम कुछ भी कर सकते हंै। आजादी के बाद आगजनी, दंगे, स्त्री-दलित आदिवासियों का उत्पीड़न हमारा राजनीतिक शगल बन गया। इस निरंकुश राजनीति को थामने में बौद्धिक, सांस्कृतिक व नैतिक शक्तियाँ लाचार और असहाय हो गई। निःसंदेह राजनीति समाज को संचालित करने की सबसे प्रभावशाली ताकतवर व निर्णायक युक्ति है। किन्तु आज वह किन हाथों में पहुँच गई? क्यों? समाज को गैर जिम्मेदार, विभाजित व जनता के प्रति बेहद सम्वेदहीन बौद्धिक जमात ने उसे वहाँ पहुंचें दिया है जहाँ से निकालना यदि आज असम्भवन नहीं तो आसान भी नही। शिक्षा, संस्कृति राष्ट्रीयता, अर्थनीति, वित्त-व्यापार, संचार, प्रौद्योगिकी, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व पर्यावरण विनाश आदि के बारे में हम जहाँ आ पहूँचे हैं, उसके परिणाम हमारे सामने हैं। आंतरिक सुरक्षा, नक्सलवाद, आंतकवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवादी-सामाजिक विघटन की चुनौतियाँ राजनीतिक असफलता का ही परिणाम हैं। केवल सत्ता और सम्पत्ति लोलुप, हिंसक राजनीति क्या इनका हल निकाल पाएगी? हमें नही भूलना चाहिए-भारत का संसदीय लोकतंत्र जिस अंधी सुरंग में फॅस गया है इसके लिए केवल राजनीतिक दल, व्यक्ति या संस्थाएं ही दोषी नहीं है। लोकतन्त्र में जनता ही अन्तिम निर्णायक है। हमें यह मंत्र, यह सूत्र गांधी से ही मिला जिसे हमने भुला दिया। पर, वह जनता कैसी होगी? क्या आज की यह जनता, जाति, धर्म लिंग, वर्ग, भाषा, क्षेत्र में बॅटी व गरीब, अशिक्षित, भ्रष्ट, कमजोर, लुटी-पिटी जनता। इसे ताकतवर बनाए बगैर कैसी राजनीति? कैसा लोकतंत्र? कैसी बौद्धिकता?
हम गांधी को माने- न माने, खुद को जगा लें, गांधी हमारे भीतर जीवित हो उठेगा। गांधी इस देश की मिट्टी में दबी आत्मा है।
कुमार दिनेश प्रियमन
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