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जनवरी ‘2014
1. सामाजिक समता और स्वतंत्रता का लक्ष्य
1. समता तथा स्वतंत्रता हमारे लक्ष्य हैं। हम
सामाजिक समता के प्रति तथा समान रूप से स्त्री-पुरूषों की स्वतंत्रता के लिए
प्रतिबद्ध है। सामाजिक समता जो सामाजिक न्याय की शर्त पर आधारित हो तथा जो लक्ष्य
स्वतंत्रता की कीमत चुका कर नहीं हासिल किया जाय, हम इन मूल्यों
पर स्थापित समाज के पुनर्गठन की भूमिका में मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल
परिवर्तन करेंगे। हमारे इस वक्तव्य को स्पष्टीकरण की जरूरत है।
समता
2. समतावादी
समाज व्यवस्था हमारा लक्ष्य है। यह पांच अंगुलियों को बराबर करने वाला हठधर्मी
लक्ष्य नहीं है। सामाजिक समता इस विचार पर बिल्कुल ही आधारित नहीं है कि जैविक या
प्राकृतिक स्तर पर मूल्यों के बीच कोर्इ फर्क नहीं होता। वरन समतावादी समाज
व्यवस्था में एक उन्नत व्यवस्था का बोध निहित है। वैसी समाज व्यवस्था जिसमें
प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रतिभा के विकास के लिए समान अवसर मिल सकें। अर्थात समता
का अर्थ है कि किसी को भी संपत्ति, जन्म, ताकत तथा
विलक्षणता के आधार पर कोर्इ भी विशेषाधिकार नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो
समता का लक्ष्य किसी भी प्रकार के तथाकथित प्राकृतिक विशेषाधिकार को नकारता है।
समाजिक समता जहाँ कायम है वहां विलक्षण
व्यक्तित्व के लिये कोर्इ स्थान नहीं होगा अथवा जैविक तथा प्राकृतिक कारणों से
अविकसित शिशु के पैदा होते ही व्यवस्था के पाये हिल जायेंगे, ये
दोनों बातें सही नहीं हैं। समाज के एक सिरे पर विलक्षण व्यक्तित्व तथा दूसरे सिरे
पर कर्इ अविकसित दिमाग के लोग हैं। इन दो 'अतियों के बीच आम आबादी औसत क्षमता
वालों की है। ऐसे में समानता की व्यवस्था प्रत्येक व्यकित की प्रतिभा के विकास के
लिये समुचित अवसर की व्यवस्था है। इसमें यह भी निहित है कि विलक्षण व्यक्तियों की
प्रतिभा के विकास में समुचित योगदान हो सके।
समानता पर आधारित समाज वर्ग, योनि
तथा जाति के विभेदों से विहीन समाज होगा। इस समाज में किसी भी तरह के शोषण के लिए
अवसर नहीं रहेगा तथा इस समाज में असमान विकास के स्तर को खत्म किया जायेगा।
सामाजिक न्याय
3. समाज में समान अवसर के रहते हुए भी कुछ
असमानताएँ एक अनिवार्य बुरार्इ की तरह लंबे समय तक बनी रह सकती हैं। ऐसा विकास के
असमान स्तर की वजह से भी संभव है, तथा ऐसा अलग-अलग समुदायों की परंपराओं
और संस्कृतियों के बीच रहने के मोह की वजह से भी हो सकता है, प्राकृतिक
तथा जैविक कारणों से कुछ अनिवार्य विषमताएँ बनी रह सकती हैं। इन सिथतियों से
निपटने के लिये सामाजिक न्याय के सिद्धांत को समाज के पुनर्गठन की प्रक्रिया में
एक अनिवार्यता बनानी होगी। जाति, योनि, बल तथा उम्र के
आधार पर जो भेद अनिवार्यत: बने रहेंगे उसके मुकाबले न्याय की व्यवस्था समानता को
सबों के अनुरूप सुनिशिचत करने की ही व्यवस्था है। इसे कायम करना है और यह समता की
शर्त भी है।
स्वतंत्रता
4. व्यकित स्वतंत्रता के मूल्य के केन्द्र में
है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रतिभा का ‘अपनी इच्छा से’ विकास करने का अवसर ही
स्वतंत्रता की अवधारणा है। स्वतंत्रता को समाज के पुनर्गठन का आधार बनाना हमारा
लक्ष्य है।
स्वतंत्रता का लक्ष्य मनुष्य और मानवता के
विकास में समाज अथवा राज्य के अनावश्यक दखल को या रूकावट को नकारता है। इसका मतलब
यह नहीं है कि समाज में व्यकितयों के ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण ही नहीं रहेगा।
ऐसी असीमित स्वतंत्रता अंतत: स्वतंत्रता को ही समाप्त कर देती है। क्योंकि इसमें 'कमजोर’
व्यकितयों को दबाने व गुलाम बनाने की 'स्वतंत्रता भी 'ताकतवर’
व्यकितयों को मिल जाती है।
इसलिये समाज अथवा राज्य से व्यक्तियों की
स्वतंत्रता की रक्षा करने का जब हम लक्ष्य अपनाते हैं तो इसमें यह निहित है कि कुछ
विवेकपूर्ण सीमाओं को मानने के लिए हमलोग तैयार हैं। अगर हम चाहते हैं कि किसी भी
प्रकार के आक्रमणों के खिलाफ समाज व्यकितयों की स्वतंत्रता को सुरक्षा प्रदान करे
तब हमें यह मानना ही होगा कि दूसरों की स्वतंत्रता पर भी रोक लगेगी। परंतु इन
सीमाओं को स्वीकार करने के बावजूद हमें यह मूल बात नहीं भूलनी चाहिये कि हम समाज
से उन बुनियादी स्वतंत्रताओं की रक्षा चाहते हैं, जो दूसरे लोगों
को हानि नहीं पहुंचाती है। अतएव हमारा लक्ष्य है कि समाज में स्वतंत्रता पर जो
सीमा हो वह सब लोगों पर समान रूप से लागू हो। इसके साथ ही किसी भी हालत में 'ये
सीमायें’ संबंधित लोगों की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने हेतु जो जरूरी हो, उससे
अधिक नहीं हों।
कुछ सीमाओं को स्वीकार कर सभी मनुष्यों की
बुनियादी स्वतंत्रता की सुरक्षा के लक्ष्य के व्यवहार में जाना कठिन जरूर है। पर
ये मुशिकलें ऐसी नहीं हैं जिससे हमें बुनियादी लक्ष्य में ही परिवर्तन करना पड़े।
इसके विपरीत लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के अनुभवों से हम यह देख पाये हैं कि इस
दिशा में काफी हद तक आगे बढ़ा जा सकता है। इसके आगे बढ़ने की गुंजाइश है भी।
5. हमारे
इस दृष्टीकोण में स्वतंत्रता, सुरक्षा और समता के मूल्यों के बीच का
तथाकथित विरोध और कुछ नहीं, कल्पना मात्र है। यह सही है कि समाज
(या राज्य) द्वारा सुरक्षा दिये जाने के बिना स्वतंत्रता नहीं बच सकती है। परंतु
इसके साथ यह भी उतना ही सही है कि स्त्री-पुरूषों की व्यापक जनशक्ति द्वारा
नियंत्रित समाज (और राज्य) ही वह स्वतंत्रता दे सकता है। इस प्रकार कहना नहीं होगा
कि समता के बिना स्वतंत्रता की बात करना संभव ही नहीं है। परंतु साथ ही यह भी उतना
ही सही है कि समाज में स्वतंत्रता के नियंत्रण के बिना समता की व्यवस्था के
स्थापित होने की भी कोर्इ संभावना नहीं है।
2. समता और
स्वतंत्रता के लिये संपूर्ण क्रांति
6. समता और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर
भारतीय समाज के पुनर्गठन के अपने लक्ष्य को हम संपूर्ण क्रांति आंदोलन (सं क्रां. आ)
का नाम देते हैं।
संपूर्ण क्रांति हमारी जीवन पद्धति को
निर्देशित करने की आधार संहिता होकर भी यह महज आचरण की संहिता नहीं है। वरन यह
समाज के आचरण की संहिता और समाज के पुनर्गठन का शास्त्र है। इसलिये संपूर्ण
क्रांति आंदोलन (सं.क्रा.आ.) से एक वैचारिक खाका का तकाजा रहता है। संक्राआ-जो चल
रहा है और चलता रहेगा-समाज को प्रगति की ओर नेतृत्व देने की प्रक्रिया है। वह
परिवर्तन की विचारधाराओं में मौजूदा गतिरोध के मुकाबले वैचारिक विकल्प के रूप में
एक आधुनिक विचार है। इसी अर्थ में यह आंदोलन आरंभिक दौर मे है और इसकी वैचारिक
स्पष्टता को आरंभिक दौर की स्पष्टता ही मान कर चलना होगा।
7.
संपूर्ण क्रांति के लक्ष्य सं. क्रां. को समाज में परिभाषित करने की प्रक्रिया से
स्पष्ट हुए हैं। समकालीन दौर में हमारा दिशा निर्देश अभी तक स्पष्ट लक्ष्यबोध पर
आधारित है। लक्ष्य को जिस हद तक परिभाषित कर मूर्त रूप देने में हम समर्थ हुए हैं
उससे अब तक के हमारे प्रयासों की भूमिका स्पष्ट होगी, ओर लक्ष्यबोध से
आगे के प्रयासों के लिये दिशा निर्देशन होगा। पुन: यही होगा कि हमारे प्रयासों से
समाज की जकड़न जितनी टूटेगी उतना ही आदर्श समाज की तस्वीर मूर्त रूप लेकर हमारे
सामने स्पष्ट हो पायेगी। हम परिवर्तन की अपनी रणनीति और समाज के पुनर्गठन हेतु
समाज को नेतृत्व देने के कौशल के सहारे संपूर्ण क्रांति आंदोलन को क्रमश: स्पष्ट
परिभाषा और स्पष्ट प्रक्रिया से लैस कर सकेंगे। इस तरह लक्ष्य से प्रक्रिया और
प्रक्रिया से लक्ष्य को परिभाषित करने की उभयभावी पद्धति में हमारी आस्था है।
सं. क्रां. की
उभयभावी प्रक्रिया
8. सं.
क्रां. के संदर्भ में एक शंका यह रखी जाती है कि इस आंदोलन का वैचारिक खाका स्पष्ट
नहीं है। संपूर्ण क्रांति विचारधारा के साथ इस प्रचलित उदघोष का आग्रह भी रहा है
कि किसी 'ब्लू प्रिंट (बने-बनाये खाका) का अनुसरण करके क्रांति नहीं होगी। इस
आग्रह का प्रतिवाद करने अथवा सं. क्रा के बारे में शंकाओं का जवाब देने के लिये हम
इसे यहां वैचारिक स्वरूप नहीं दे रहे हैं। वरन हमारा आग्रह है कि इस धारा में
पिछले तीन दशक से प्रभावी तथा प्रतिबद्ध कर्म का सातव्य बना हुआ है। इन्हें
निर्देशित करने वाले दृढ़ वैचारिक मूल्य तथा दिशाबोध की अंत:धारा भी रही है। हम
उन्हीं मूल्यों को तथा मूल्यों की ओर बढ़ने वाली प्रक्रिया को एक वैचारिक खाका के
रूप में यहां लिपिबद्ध रूप में इस सम्मेलन से मान्य कर रहे हैं। परंतु सामाजिक
परिवर्तन के संदर्भ में हम एक प्रचलित लोकोक्ति को दुहरा देना पसंद करेंगे। लोकोक्ति यह
है कि तैरना सीखने के पहले पानी में उतरना अपरिहार्य होता है। समाज में परिभाषित
करने के पहले भी हमारी धारा एक वैचारिक स्वरूप में थी और इस वैचारिक खाका के बन
जाने के बाद भी वैचारिक स्वरूप स्पष्टतर होता चला जायेगा।
सं.
क्रां विचारधारा की मुख्य विशेषतायें
9. संपूर्ण
क्रांति आंदोलन की पहचान को अलग करने के संदर्भ में आरंभ से ही दो अवधारणायें रही
हैं। (क) शांतिमयता तथा (ख) लोकतंत्र की अवधारणा। इस अवधारणा में खास बात यह है कि
ये मूल्य भी हैं और प्रक्रियाएँ भी। अर्थात साधन भी और साध्य भी। शांतिमयता की
स्पष्ट परिभाषा शांतिमय वर्ग-संघर्ष के प्रभावपूर्ण अभ्यास के दौरान हिंसा और
यथासिथति को चुनौती देने के सफल माध्यम के रूप में प्रस्थापित हुर्इ। अहिंसक और
शांतिमय समाज के पुनर्गठन के लिये शांतिमय वर्ग-संघर्ष ही नहीं, संघर्षों
के अन्य रूप में भी शांतिमय संक्रा. के अपरिहार्य साधन हैं। लोकतंत्र के स्वरूप
तथा अंतर्वस्तु (from and
content) के बारे में सं. क्रा. विचारधारा में कोर्इ समझौता मान्य नहीं है। इस
कथन का अर्थ यह है कि सं. क्रां. के लिये लोकतंत्र अथवा लोकतांत्रिक समाज की रचना
दूर का एक लक्ष्य मात्र नहीं है। अर्थात लोकतांत्रिक समाज के निर्माण का लक्ष्य
बतलाते हुये यह विचार परिवर्तन की प्रक्रिया में और किसी भी भले उद्देश्य के
लिये किसी भी स्तर का नागरिक अधिकार और स्वतंत्रता को सीमित करने अथवा किसी भी तरह
की तानाशाही की तरफदारी करने की अनुमति नहीं देता है।
सं. क्रा. धारा के विकास की प्रक्रिया में
तीसरी जो मुख्य वैचारिक अवधारणा प्रमुख विशेषता के रूप में आती है वह है (ग)
बहुआयामी संघर्ष की अवधारणा। (घ)इसके अलावे चौथी विशेषता इस धारा में यह रही है कि
संक्रां. के लिये संगठन निर्दलीयता की अवधारणा पर आधारित होगा। सामाजिक अंतर्विरोध
में आर्थिक सत्ता को मूल तथा अन्य अंतर्विरोधों को अधिरचना नहीं मानने की वैचारिक
अवधारणा संपूर्ण क्रांति आंदोलन को बहुआयामी संघर्ष बना देता है। निर्दलीयता की
अवधारणा दल से स्वतंत्र परंतु सत्ता सापेक्ष होने की अवधारणा है। अर्थात संपूर्ण
क्रांति के लिये निर्दलीय संगठन जन शक्ति के
निर्माण की राजनैतिक भूमिका में प्रभावी तथा सत्ता सापेक्ष रूप अखितयार करेगा।
परंतु सं.क्रां. वाहक संगठन खुद सत्ता में नहीं जायेगा।
3.
समाज व्यवस्था
10. समाज व्यवस्था को विश्लेषित करने हेतु
संपूर्ण-क्रांति धारा को एक शास्त्र के रूप में विकसित करने की ही भूमिका हम यहां
ले रहे हैं। परंतु हमारी यहां दो मर्यादाएँ हैं - (1) भारतीय समाज की परिस्थिति और
(2) समकालीनता। अतैव हम संपूर्ण क्रांति विचारधारा को यहाँ सार्वभौम महत्व के साथ
परिभाषित करने का आग्रह नहीं रख रहे हैं। हम आज के लिए तथा खास तौर पर भारतीय समाज
के लिए अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता यहां लिपिबद्ध कर रहे हैं।
11.
समाज विश्लेषण से पहले कुछ विनम्र आपत्तियाँ : समाज विश्लेषण की पद्धति को सरल
बनाने की कुंजी के रूप में प्रचलित तथा प्रभावी धारणा यह है कि शोषण की व्यवस्था
के मूल में आर्थिक सत्ता है। यह धारणा पूरी दुनिया के संघर्षशील जमातों के बड़े
हिस्से पर राज कर रही है। यह मार्क्सवादी विचार की निष्पत्ति है। मार्क्सवादी
विचारधारा ने विश्व भर में लोकतांत्रिक शासनों के स्थापित होने के मौजूदा माहौल
में इस वजह से 'राजनीति’ की बढ़ी हुर्इ तथा गतिमान भूमिका को
लगातार नकारा है। मार्क्सवादियों ने लोकतांत्रिक शासन पद्धति को एक ओर भ्रमित करने
तथा दूसरी ओर इसका इस्तेमाल करने का बेमेल रास्ता ही अपनाया है। मार्क्सवाद
उत्पादन के रिश्ते के आधार पर समाज व्यवस्था की विश्लेषित करने की कट्टर धारणा है।
इस विचार की अनिवार्य निष्पत्ति के तौर पर मार्क्सवादी यही सिद्ध करने में लगे
रहते हैं कि आर्थिक अंतर्विरोध मूल है और बाकी सभी अधिरचना (super structure) के अंतर्विरोध
हैं। इसलिए मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष को समाज परिवर्तन के लिए प्रमुख संघर्ष मानकर
चलता है। वैसे तो विभिन्न आधारों पर मार्क्सवादी आंदोलन अलग-अलग धाराओं में
विभाजित हैं। परंतु मुख्य रूप से वर्ग-संघर्ष को मार्क्सवादियों ने
राजनैतिक संघर्ष के रूप में विकसित करने की नीति अपनायी है। इस पद्धति में समाज को
नेतृत्व देने वाली एक राजनैतिक पार्टी को सर्वहारा वर्ग की पार्टी के रूप में देखा
जाता है। सत्ता हथियाने की राजनीतिक योजना के साथ पार्टी ने सभी अंतर्विरोधों के
आधार पर अपने पीछे समाज की विविध शक्तियों को संगठित करने की प्रभावी कार्यनीति
में सफलता भी पायी है।
परन्तु मान्यता के तौर पर कम्युनिस्ट विचार
वर्ग संघर्ष को प्रधान संघर्ष और आर्थिक सत्ता को मूल सत्ता मानता है। कम्युनिस्ट
पंथ के अनुसार सामाजिक जीवन में उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े आर्थिक संबंध ही
मूलभूत रूप से वास्तविक हैं और अपनी कानूनी संरचना के साथ पूरी राजकीय व्यवस्था
उत्पादन संबंधों की आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद पर बनी हुर्इ अधिरचना मात्र है।
राज्य का विकास और स्वरूप पूर्ण रूप से आर्थिक व्यवस्था के ऊपर ही निर्भर करता है।
यही नहीं, आदिकाल से और
मानव की सभ्यता के साथ ही स्वरूप लेने वाले योनिगत अंतर्विरोध तथा भारत में जाति
जैसी विशिष्ट शोषणकारी व्यवस्था को भी मार्क्सवादी दर्शन उत्पादन प्रक्रिया से
जुड़े आर्थिक संबंधों के आधार पर ही विश्लेषित करता है। उन अन्तर्विरोधों के
आर्थिक सत्ता के साथ संबंधों के लक्षणों के आधार पर मार्क्सवादी विचार यही चित्र
निरूपण करने में लगा रहता है कि अंतर्विरोध की जड़ें आर्थिक अंतर्विरोध में निहित
हैं।
एक
गैर-मार्क्सवादी विचार पद्धति
12. संपूर्ण क्रांति विचारधारा एक गैर मार्क्सवादी
विचारधारा है। एक गैर मार्क्सवादी आंदोलन के रूप में यह विचारधारा मार्क्सवादी
गतिरोध को दूर कर एक वैचारिक धारा का निर्णय करता है।
13.
किसी भी समाज विशेष में प्रभावी विविध सामाजिक अंतिर्वरोधों में अलग-अलग प्रकृति
के अन्तर्विरोधों के टूटने से अन्य प्रकृति की सत्ता भी टूटती है। यह सब सामाजिक
परिसिथति की भिन्नता की वजह से अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न परिमाण में हो सकता है।
यह सब बहुत कुछ संघर्ष के कौशल पर भी निर्भर करता है कि एक साथ एक से अलग प्रकृति
के ओर मूल अन्तर्विरोध के खिलाफ लड़ार्इ की कितनी संभावना है। यानी परिवर्तनकारी
संघर्ष के कौशल से बहुआयामी प्रभाव बनता है। परन्तु इन सारी संभावनाओं को इसी
सूत्र में देखने से कि आर्थिक अंतर्विरोध मूलभूत तथा अन्य अंतर्विरोध अधिरचनागत है,
संपूर्ण
क्रांति विचारधारा का इन्कार है।
बहुआयामी
संघर्ष का समान लक्ष्य की ओर समन्वयन
14. मार्क्सवादी
विचारधारा की बुनियादी संरचना में राज्य की जो अवधारणा है उसकी वजह से राज्य की
विफलताओं का मूल्यांकन करने में मार्क्सवाद विफल है। परंतु संपूर्ण क्रांति
विचारधारा में राज्य सत्ता और आर्थिक सत्ता दोनों का बराबर महत्व है । यह मानकर
चलने से कि शोषित वर्ग के दमन को कानूनी मान्यता देने का काम ही राजसंस्था द्वारा
होगा, गतिरोध बनता है। उसमें एक प्रणाली के रूप में लोकतंत्र के विकास को
समझना और भी मुश्किल हो जाता है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत में
लोकतांत्रिक राज्य की बुनियाद पड़ गयी। लोकतांत्रिक राज्य आर्थिक सत्ता को भी
नियंत्रित रख सकती है। यह बताने के अनेक उद्धरण भारतीय राजनीति के विकास के आधुनिक
दौर में से हमें मिल सकते हैं। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के पास आर्थिक सत्ता के
खिलाफ संघर्ष की दोहरी मार का रास्ता है। पहला प्रहार है सत्ता केन्द्रों से सीधा
संघर्ष - शांतिमय वर्ग संघर्ष द्वारा तथा दूसरा राजसत्ता को प्रगतिशील लोकतांत्रिक
नियंत्रण में लेते हुए राजसत्ता के माध्यम से आर्थिक सत्ता का नियमन।
15.
समाज में पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था जिस रूप में आधी आबादी-सित्रयों के सामाजिक जीवन
तथा यौनिकता को दबा कर रखती है, उसकी वजह से असितत्वमान यौनिक
अंतर्विरोध अधिरचनागत नहीं है। इसी तरह जाति व्यवस्था आधुनिक वर्गों के उदभव और
विकास के मुकाबले प्राचीन तथा ज्यादा दृढ़ व्यवस्था है। भारत में राजनैतिक शासन
में आये बदलाव की वजह से और साथ-साथ आर्थिक वर्गों के बनने और बदलने से जाति
व्यवस्था का भीतरी गठन टूटता या बदलता हुआ नहीं रहा है। बलिक जाति व्यवस्था के
ठहरे हुए वर्ग के रूप में समाज में वर्गों के विकास और वर्गों के संघर्ष की
प्रक्रिया को भी बाधित किया है। फिर भी जाति व्यवस्था मूलत: आर्थिक व्यवस्था नहीं
एक सामाजिक संस्था है, इसके शीर्ष पर वह जाति (ब्राह्राण) है जिसको वह
स्थान उत्पादन साधनों पर उनके नियंत्रण अथवा राजसत्ता पर कब्जे की वजह से नहीं
प्राप्त है।
हम उपयुक्त स्थान
पर भारतीय समाज में कार्यरत महत्वपूर्ण अंतर्विरोध की पहचान करेंगे। परंतु उक्त विश्लेषण से हमारा आशय यही है कि हमारे समाज में अनेक अंतर्विरोध
हैं। बहुआयामी अंतर्विरोध से संयुक्त समाज के मुकाबले संपूर्ण क्रांति विचारधारा
बहुआयामी संघर्षों के एक समान लक्ष्य की ओर समन्वयन का शास्त्र है।
4.
भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्लेषण
(भारतीय
समाज के विश्लेषण की कोशिश में)
16. भारत
विशाल जनसंख्या तथा विविध परंपराओं और संस्कृतियों वाला देश है। क्षेत्रीय स्तर पर
विकास के अलग-अलग स्तर और व्यवस्थायें यहां काम करती है। हम अपने देश की विशालता
और विविधता का सम्मान करते हैं। संपूर्ण क्रांति आंदोलन इसी के अनुरूप एक महान
(समनिवत तथा विविधता के अनुरूप व्यापक) संघर्ष का रूप ले सके यह हमारे सामने की
चुनौती है।
आर्थिक
व्यवस्था
17. भारत
के आर्थिक विकास की कुछ प्रमुख निष्पत्तियाँ इस प्रकार हैं :
(1) भारत
कृषि-आधारित समाज है।
(2) भारत
में उठान (ascendency) की
ओर मुखातिब औधोगिक व्यवस्था है। यह निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में बंटकर भी एक ही
व्यवस्था के रूप में है।
(3) भारतीय
अर्थव्यवस्था विश्व में पिछड़ी हुर्इ व्यवस्था है।
(4) अर्थव्यवस्था
के एक समुच्चय स्वरूप का आधार इसके आयोजित विकास (planned development)
में निहित है।
(5) भारतीय
अर्थव्यवस्था में विकास के असमान स्तरों को बनाये रखने के लिये जिम्मेवार नीतियों
की वजह से क्षेत्रीय पिछड़ापन बढ़ रहा है।
(6) योजना
(planning) औधोगिक विकास को मुख्य दिशा मान कर ही चली है, जिसकी
यह प्रमुख शर्त रही है कि भारत जैसे पिछड़े तथा कृषि आधारित समाज में औधोगिक पूंजी
का निर्माण कृषि क्षेत्र के दोहन से ही होगा।
(7) औधोगिक
व्यवस्था मुख्य रूप से पूंजीवादी है। पूंजीपति वर्ग भारतीय वर्गों में सबसे संगठित
वर्ग है और इसी वजह से वह पूरी अर्थव्यवस्था में प्रधान है।
(8) भारतीय
पूंजीवाद का साम्राज्यवादी हितों से अभिन्न साझा रहा है। साम्राज्यवादी शकितयां
सबसे अधिक तकनीक के आधार तथा इसके बाद क्रमानुरूप विश्व बाजार पर अपने नियंत्रण
तथा पूंजी के आधार पर भारत के कच्चे माल का तथा संपदा का दोहन करती है। इस तरह
पूरी अर्थव्यवस्था का दोहरा शोषण चल रहा है।
(9) भारतीय
कृषि समाज अर्थात भारत के गांव मुख्य रूप से श्रेणीबद्ध अर्थात वर्गों में विभाजित
समाज है और इस तरह शोषण के उपयुक्त समाज है।
(10) 'सामंती
परंपरायें भारतीय समाज में गहरी पैठ रखती है। इसके प्रभाव का स्तर विभिन्न
क्षेत्रों में कम-ज्यादा है। कृषि समाज में कुछ इलाके तो इन परंपराओं के गहरे
नियंत्रण में है। साथ ही औधोगिक क्षेत्र भी अलग-अलग स्तर पर सामंती परंपराओं के
साथ साझा बना कर चलता है।
कृषि
तथा औद्योगिक क्षेत्र
18. इस
तरह कहना नहीं होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था 'आज भी कृषि
आधारित’ परंतु ‘उद्योगोंन्मुखी’ अर्थव्यवस्था है। 'सामंती परंपराओं’
तथा 'पूंजीवादी विकास’ की दिशा में अर्थव्यवस्था का दोहरा शोषण हो रहा है।
'भारतीय पूंजीवाद’ के साथ 'साम्राज्यवाद’ के अभिन्न साझे की वजह
से अर्थव्यवस्था का तिहरा शोषण हो रहा है।
उक्त तथ्यों
की व्याख्या शुरू करें। अव्वल तो आर्थिक व्यवस्था के रूप में भारत आज भी कृषि
आधारित समाज है। परंतु विकास नीति आधुनिक उद्योगों के बड़े-बड़े संस्थानों पर
आधारित है। और इस तरह उठान पर आधारित पूंजीवाद ही पाँच दशक के नियोजित विकास की
निष्पत्ति है। फिर भी विकास की समस्त संभावनाओं वाली इस देश में आबादी का बहुलाश
कृषि पर निर्भर है। बावजूद उक्त तथ्य के कि उद्योग का क्षेत्र उठान पर है। औद्योगिक
क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि औद्योगिक क्षेत्र पर एक
ऐसे वर्ग, पूंजीपति वर्ग, का नियंत्रण है जो राष्ट्रीय स्तर पर
संगठित वर्ग है। पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादी साझे में काम कर रहा है। कृषि
क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर संगठित एक वर्ग का नेतृत्व उस प्रकार कायम नहीं है
जैसा कि पूंजीपति वर्ग का है। कृषि समाज वर्गों के अंतर्विरोध से ग्रस्त है। इसके
अलावे भारत की खेतिहर व्यवस्था विभिन्न इलाकों में विविध व्यवस्थाओं के रूप में
है। कृषि समाज की विसंगतियों में यह भी है कि यह क्षेत्र पुरातन सामंती व्यवस्था
के प्रभावों से अवरूद्ध समाज है। इस गतिरोध से भी ज्यादा दोनों क्षेत्रों का असमान
विकास कृषि के पिछड़ेपन का खास कारण है।
19.
भारत योजनागत विकास के छठे दशक में है। इतने सालों में मिश्रित अर्थव्यवस्था के
नाम पर सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के उद्योगों का जो ढ़ांचा (infrastructure)
खड़ा किया गया वह खास विचारधारा से प्रेरित है। भारत के नियोजकों ने आजादी के समय
विकास का जो माडल अपनाया वह भारत की आजादी के वक्त पूंजीवादी
तथा साम्यवादी दोनों ही खेमों में काम कर रही जागतिक परिस्थिति थी। विकास के महालनवीस
माडल ने उन दिनों नियोजित विकास के नाम पर रूस के जिस रास्ते का अनुसरण किया था
उसमें यह बात निहित थी कि अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन हेतु उद्योगों को बढ़ाया
जायेगा और पूंजी कृषि क्षेत्र से बनार्इ जायेगी। नियोजकों की भोंडी कल्पना यह थी
कि औद्योगिक
ढ़ांचा खड़ा करके खेती पर से जनसंख्या के दबाव को घटाया जायेगा। स्वाभाविक है ऐसे
नियेाजन से विकास का जो कृत्रिम आधार तैयार हुआ उसका परिणाम घातक हुआ। यह कृषि
क्षेत्र की गरीबी तथा आम बेरोजगारी को प्रेरित करनेवाली तथा पूंजीपति वर्ग के
हितों का पक्षपोषण करनेवाली विकास नीति थी।
भारत
का पिछड़ापन
20.
विश्व के अधिकतर विकसित देशों के मुकाबले भारत पिछड़ा हुआ है। दुनिया के दस देश ही
आज भारत से ज्यादा निर्धन है। यही वजह है कि विश्व के अधिकांश भूखे और गरीब लोग
अकेले इस विशाल जनसंख्या वाले देश में निवास करते हैं। यही नहीं, अर्थव्यवस्था
के विकास की दर भी यहां धीमी है। एक सीधा सा उदाहरण लें। सकल राष्ट्रीय उत्पादन की
सलाना वृद्धि दर तथा प्रति व्यकित वार्षिक आय इन दोनों ही पैमानों पर भारतीय
अर्थव्यवस्था पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, चीन तथा श्रीलंका-से भी पिछड़ा हुआ है।
धनी देशों के साथ तो भारतीय जीवन स्तर की कोर्इ तुलना ही नहीं है।
जन
विरोधी योजना
21.
भारत के आर्थिक विकास के लिये जो योजना बनायी गयी है उसमे अर्थव्यवस्था के विकास
की नीति तो रही है, परंतु कर्इ जनविरोधी शर्तों पर। यह अनजाने ही
नहीं हुआ है। आर्थिक विकास ने बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी को बढ़ाया है। कृषि
क्षेत्र के दोहन द्वारा औद्योगिक ढ़ांचा खड़ा करने की योजना (जिसका जिक्र ऊपर
ही आया है) के परिणामस्वरूप गांव जर्जर होते गये हैं। बड़े पैमाने पर विस्थापन की
शर्तों पर ऐसे विशालकाय उधोग, डैम आदि प्रतिष्ठान खड़े कर लिये गये
हैं जिनमें लगने वाली राष्ट्रीय पूंजी और श्रम के मुकाबले हासिल लाभ का अनुपात
बहुत ही बेमेल रहा है।
योजना ने औद्योगिक विकास की शर्त
पर विकास के जिस माडल को प्रेरित किया उसने कर्इ जनविरोधी रास्ते खोल दिये। कल्पना
यह थी कि उधोगों का ऐसा ढ़ांचा खड़ा किया जायेगा जो कृषि पर से जनसंख्या के बोझ को
कम करता जायेगा। परन्तु औद्योगिक विकास का वह ढ़ांचा खड़ा करने के संकल्प की
योजना में वह तत्व नहीं था जो खेती के स्वाभाविक विकास से सहयोग करके चले। वरन
बड़े उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था ने पूंजी की एक कृत्रिम अनिवार्यता बनायी
जिससे कृषि क्षेत्र के दोहन द्वारा पूंजी निर्माण का ही मार्ग प्रशस्त हुआ। इस
माडल के साथ पूंजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद के साथ साझा करके तालमेल बिठा लिया।
बड़े उद्योगों और पूंजीवादी उद्योगनीति ने रोजगार का सृजन तो नहीं ही किया - कृषि
क्षेत्र को जर्जर जरूर बना दिया। इस तरह आज कृषि क्षेत्र रोजगार के लिये जनसंख्या
के भारी बोझ के तले तो दब ही रहा है साथ ही यह लगातार लूट की वजह से गरीबी में
अर्थव्यवस्था को बांध देने वाला क्षेत्र बन गया है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था में
योजना के साथ सबसे संगठित तालमेल है तो पूंजीवादी विकास नीति का।
भारतीय
उद्योग व्यवस्था
22. मिश्रित
अर्थव्यवस्था के तहत भारतीय उधोग निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में विभाजित है। परंतु
औधोगिक विकास की मुख्य दिशा पूँजीवादी है।
23.
सार्वजनिक क्षेत्र : जो उद्योग सरकार द्वारा खड़े किये गये हैं अथवा जो कारखाने या
खदान राष्ट्रीयकरण के बाद सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में चल रहे हैं, पूंजीवादी
मानदण्डों का ही अनुकरण कर रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग में भी उत्पादों
की कीमत पूंजीवादी मुनाफे की नीति पर ही आधारित है। आयोजित विकास के चौथे दशक में
अर्थशास्त्री आम तौर पर इन निष्कर्षों को मानने लगे थे कि सार्वजनिक क्षेत्र के
उधोग अपने आम प्रभाव में पूंजीवादी हितों के साथ साझा बिठा कर चलते हैं। यही नहीं,
सार्वजनिक
क्षेत्र के जो उद्योग विदेशी साझे में चल रहे हैं वे साम्राज्यवादी हित के पोषण
में निजी क्षेत्र से भी अलग नहीं हैं। कुछ खदानों का राष्ट्रीयकरण करके उन्हें जब
निजी हाथों से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की व्यवस्था के अधीन किया गया था तब उनमें
कार्यरत उत्पादक श्रमिकों के जीवन स्तर में सुधार आने के उदाहरण जरूर हैं। परंतु
प्रबंधन में मजदूरों की भूमिका तथा सामाजिक स्वामित्व जैसे गैरपूँजीवादी मानदण्डों
पर यह क्षेत्र खरा नहीं उतरता। पूंजी निर्माण के लिये कृषि क्षेत्र के दोहन की
राष्ट्रीय मूल्य नीति सार्वजनिक क्षेत्र के विकास के लिए उतनी ही जरूरी बनायी गयी
है जितनी निजी क्षेत्र के लिये। क्योंकि प्रातिनिधिक शासन प्रणाली वास्तव में लोककल्याणकारी
नहीं है और इसके तहत भी शासकों का एक वर्ग बन गया है। इसलिये भी सार्वजनिक क्षेत्र
से वैकल्पिक उद्योग नीति का निर्माण नहीं होता है।
पूंजीवाद
24. वैसे
तो प्रत्यक्ष पूंजीवादी नियंत्रण में अर्थव्यवस्था का एक छोटा सा हिस्सा ही है।
यही नहीं, पूंजीपति वर्ग श्रमशक्ति के छोटे से हिस्से को ही प्रत्यक्षत:
नियंत्रित करता है। परंतु किसी भी दूसरे वर्ग के मुकाबले पूंजीपति वर्ग सबसे
ज्यादा संगठित वर्ग है। इस तरह नियोजित विकास की नीतियों को अपने हित में मोड़
पाने में सबसे अधिक पूंजीपति वर्ग ही समर्थ हैं। पूरी अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी
उत्पादन का स्थान सबसे ऊपर नहीं है। इसके बावजूद विभेदकारी नीतियों और परंपराओं के
साथ अपेक्षया समर्थ ढंग से साझा बिठा कर पूंजीपति वर्ग पूरी अर्थव्यवस्था शोषक
वर्गों के शिखर पर विराजमान है। इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद का मुख्य
प्रभाव दो स्तर पर है। पहला यह कि औद्योगिक व्यवस्था पूंजीवादी है तथा दूसरा यह
कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की मुख्य दिशा पूंजीवादी है।
भारत का असमान विकास हुआ है, जिसका
आधार है आर्थिक स्तर पर क्षेत्रीय विषमता। बि्रतानी शासन ने ही अलग-अलग क्षेत्रों
तथा सांस्कृतिक परंपराओं को अपनी विभेदकारी नीति के प्रसार का मुख्य आधार बनाया।
आजादी के पहले क्षेत्रीय असमानता को बढ़ावा देने वाली जिस नीति पर अमल किया गया था
वह पूंजीवादी विकास के लिए एक अनुकूलता थी। इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था में
क्षेत्रीय दोहन के आधार पर पूंजी निर्माण तथा पूंजीवादी साधनों से क्षेत्रीय दोहन
की अबाध प्रक्रिया चल रही है। पूंजी के बदौलत ही खेतिहर क्षेत्र के अतिरेक (surplus) का
दोहन चल रहा है। प्रत्यक्ष रूप से पूंजीवाद उत्पादक श्रमिकों के श्रम को नियंत्रित
कर रहा है।
भारतीय पूंजीवाद साम्राज्यवादी उत्पादकों के
साथ साझा कर के भारतीय बाजार को नियंत्रित करता है और राष्ट्रीय मूल्य नीति को
प्रभावित करता है। भारत में उपभोक्ता संस्कृति का निर्माण करके पूंजीवादी
तथा साम्राज्यवादी शर्तों पर बाजार को भी नियंत्रित किया जा रहा है। उधोगों के लिए
कच्चे माल का दोहन जनहितकारी शर्तों पर नहीं वरन पूँजीवादी हितों के अनुरूप ही
किया जाता है।
साम्राज्यवाद
25. धनी देशों की पूंजी तथा तकनीक बहुत बडे़
पैमाने पर भारत में लगी है। विश्व बाजार पूंजीवादी हितों के अनुरूप ही चलता है।
भारत में अपनी खुद की जरूरतों के अनुरूप तकनीक विकास का स्तर मुख्य रूप से पंगु ही
रहा है। यही वजह है कि विश्व बाजार तथा तकनीक में अपनी विशिष्ट हैसियत की बदौलत
साम्राज्यवादी पूंजी भारतीय पूंजी के साथ साझे की भूमिका में भी विशिष्ट स्थान
रखती है और भारतीय पूंजीपतियों का स्थान भारत में भी कर्इ बार 'छुटभैयों’
वाला ही बन जाता है। इस तरह भारत भारतीय पूँजीवाद के साथ अभिन्न साझे में
साम्राज्यवादी हितों के लिये एक चारागाह बना हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहरा
शोषण हो रहा है।
26.
पूँजीवादी बाजार श्रम और रोजगार पर आधारित लघु तथा घरेलू उधोग के लिये प्रतिकूल
है। इसलिये लघु उद्योगों का विकास इस रूप में संभव नहीं है क्योंकि यह विकास
पूँजीवाद को चुनौती दिये बगैर नहीं होगा। अत: लघु उद्योगों का विकास अगर हो भी रहा
है तो यह पूंजीवादी हितों के अनुरूप तकनीक पर निर्भर है तथा पूँजीवाद को सहयोग के
रूप में ही संभव हो पा रहा है।
27. मध्यमवर्ग
: भारत में पूँजीशाही के साथ नौकरशाही का शिकंजा मजबूत है। यह उच्च मध्यम वर्ग के
रूप में असितत्व में है। मध्यम वर्ग आमतौर पर उपभोäा-रूझान तथा
आधुनिक समाज में अपने वर्गीय गठन में पूँजीवादी अर्थतंत्र के अनुरूप ही है। मध्यम
वर्ग के प्रसार की नीति पूँजीवादी की अनिवार्य शर्त बन गयी है। औद्योगिक
क्षेत्र के लिये व्यवस्थापकों तथा वितरकों की फौज के रूप में मध्यम वर्ग ही काम
करता है। यह वर्ग अपनी सुविधा और विशेषाधिकारों के लिये वर्गगत गठन में ही
पूँजीवाद को सुदृढ़ करने वाला है। कुछ आधुनिक तथा संगठित क्षेत्र के तकनीकी
मजदूरों ने तो अपना स्थान मध्य वर्ग में ही बना लिया है। यह तबका पूंजीवादी उत्पादन
प्रणाली के हितों के साथ अपना हित देखता है।
28.
इस तरह महज समस्त औधोगिक संरचना में विशेषाधिकार तथा स्वामित्व के स्तर पर ही नहीं
बलिक शिक्षा, लोक कल्याण तथा संस्कृति के रूप में भी
पूंजीवादी मानदण्ड प्रभावी बने हुए हैं। इस तरह समकालीन समाज में पूंजीवाद ने एक
उन्नत व्यवस्था तथा संस्कृति के रूप में अपना आकर्षण उन लोगों में भी बना लिया है
जो किसी भी रूप में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लाभांशों में हिस्सेदार नहीं हैं।
कृषि
क्षेत्र
29.
देश की सकल आबादी में 80 फीसदी का बोझ मुख्य रूप से कृषि तंत्र पर ही पड़ता है।
आजादी के तुरत बाद देश के सकल घरेलू
उत्पादन में औद्योगिक उत्पादन का स्थान कृषि उत्पादन के बाद ही आता
था। परंतु अब कृषि उत्पादन में वृद्धि की वह दर नहीं रही है जो उद्योग तथा अन्य
गैर-उत्पादक सेवा क्षेत्रों की रही है। यही वजह है कि आजादी के समय कुल घरेलू उत्पादन
में कृषि उत्पादन अकेले आधे से अधिक था। आज वह घटकर पांचवें हिस्से से भी कम रह
गया है। कृषि क्षेत्र पर जनसंख्या का दबाव इस अनुपात में कम नहीं हुआ। इस तरह इस
क्षेत्र पर जनसंख्या का दबाव ग्रामीण विपन्नता और बड़े पैमाने पर शहरों की ओर
पलायन का कारण बनता आया है।
कृषि
का ऐतिहासिक विकासक्रम
30.
भारतीय समाज मे वर्गों के विभाजन में गरीब वर्गों का आधार कृषि क्षेत्र में ही है।
बि्रतानी शासन द्वारा भूमि राजस्व की तीन व्यवस्थाओं-जमीन्दारी, महालबारी
तथा रैयतबारी की वजह से जमीन जमीन्दारों, बिचौलियों, महाजनों और नवोदित
बडे़ भूस्वामियों के हाथ में लगातार केंद्रित होती रही। इसके परिणामस्वरूप भूमिहीन कृषकों की संख्या बढ़ती गयी। इसी से
भीषण आर्थिक शोषण और गुलामी के सामाजिक आधार का अमानवीय तंत्र निर्मित हुआ।
भारत
की आजादी के साथ जनता ने बालिग मताधिकार हासिल किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
कृषि सुधार संबंधी कुछ प्रगतिशील आम राय भी बने थे और इनके पक्ष में आम राय पर
आधारित क्रियाशील जनमत भी था। इसके प्रभाव में आजादी के बाद प्रगतिशील भूमि सुधार
कानून भी बनाये गये। इनमें प्रमुख है - जमीन्दारी उन्मूलन, भूमि हदबन्दी
(सीलिंग) तथा बटार्इदारी सम्बन्धी कर्इ कानून। इन कानूनों के जरिये राजस्व की
सरकारी एजेंसी का विकल्प तैयार करके बिचौलिये जमीन्दारों को तो पूर्णत: समाप्त कर
दिया गया। परन्तु भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों में जमीन्दारों ने छिद्र निकाल
लिया। जिस प्रकार शासन चलाने और प्रगतिशील सुधारों को संभव बनाने की सर्वश्रेष्ठ
व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र पूर्णत: छिद्ररहित ढांचा नहीं है, उसी
तरह जमीन्दारी उन्मूलन को जनता का प्रभावी समर्थन जहां मिला और जहां जन आकांक्षाओं
को धोखा देने में भूस्वामी और जमीन्दार प्रभावी हुये-उन दोनों क्षेत्रों में
व्यापक फर्क अभी भी बना हुआ है। भूमि सुधार पर अलग-अलग प्रान्तों के स्तर पर
प्रशासनिक बल और कानून अलग-अलग ढ़ंग से संगठित हुए। इस वजह से कर्इ स्थानों पर गत
तिथि में जमीन बेचना, बेनामी हस्तांतरण के द्वारा सुधारों को विफल
करना, कहीं-कहीं भूस्वामी लाबी का प्रभावी होकर प्रशासन के गुप्त निर्देशों
द्वारा सुधार कानूनों की अमलदारी रूकवाना, जैसे छिद्र बना लिये गये। परिणामस्वरूप
भूमि सुधार और भूमि के पुनर्वितरण के निर्धारित लक्ष्य को काफी हद तक कमजोर और कुछ
इलाकों में काफी हद तक विफल बना दिया गया।
31.
कृषि अर्थव्यवस्था में सामंती प्रभाव -उक्त कारणों से जो ढांचा बचा रहा, वह
है - कृषि क्षेत्र के कर्इ इलाकों में
फर्जी और बेनामी भूमि के बड़े-बड़े स्वामियों का बचा रहना। इससे भारतीय
अर्थव्यवस्था में सामंती परंपराओं के कर्इ रूप आज भी प्रभावी बने हुये हैं। कुछ
इलाके तो ऐसे भी हैं जहां छदम रूप में जमीन्दारी काल की व्यवस्था आज भी कायम है।
अगर इन इलाकों में बालिग मताधिकार के रूप में राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने के
(पांच साला अभ्यास में आंशिक हिस्सेदारी ही सही) मौके को निकाल दिया जाये तो भारत
की आजादी के बाद भी इन इलाकों को सामंती इलाके ही कहना पड़ेगा।
इस तरह पहली लड़ार्इ में सामंती अर्थव्यवस्था
के अवशेषों का पूर्णत: उन्मूलन नहीं किया जा सका। फिर इसके बाद आज एक व्यवस्था के
रूप में सामंतवाद के अवशेष आपस के साझे से ग्रामीण इलाके में स्वतंत्रता व समता के
जीवन मूल्यों को पंगु बनाये हुए हैं।
ग्रामीण
अर्थव्यवस्था की गरीबी और सामंती परंपरायें
32. एक
ओर तो सामंती परम्पराओं से मुक्ति नहीं मिलने से गतिरूद्ध ग्रामीण अर्थव्यवस्था की
वजह से गांवों में गरीबी है। गरीबी और सामाजिक गैरबराबरी को बांध रखने की शर्त के
साथ कृषि क्षेत्र के दोहन की शासकीय नीति है। यह अन्यथा नहीं है कि एक बार काम कर
लेने और फिर टूट जाने के बाद भूमि सुधार के लक्ष्य दुबारा नये संकल्प के साथ
भारतीय राजनीति में दुहराये नहीं गये।
गांवों की पूंजी का दोहन कर्इ रूपों में हुआ।
गांव से कच्चे माल के दोहन के रूप में, जिन्हें सस्ती कीमत पर खरीदे जाने के
लिये बाजार व्यवस्था काम करती है। इस बाजार व्यवस्था की कमान हमेशा ग्रामीण
अर्थव्यवस्था के नियंत्रण से बाहर ही रही है। इस दोहन के लिए बिचौलिये वर्ग की
जरूरत थी, जिसे गांवों में श्रेणियों के बने रहने से स्वाभाविक आधार मिल जाता
है। इसके अलावे राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा मूल्य नीति कृषि क्षेत्र की पूँजी के
दोहन का माध्यम है। यह औद्योगिक माल की कीमत और कृषि क्षेत्र के उत्पादन की कीमत
में भेद रखने और भेद को उद्योगों के पक्ष में बढ़ाते जाने की प्रणाली है।
33. कृषि
विकास की अनेकानेक योजनायें अपने देश में चल रही है। ये गैर बराबरी के स्तर को
स्वीकार करते हुए या उनको बढ़ावा देते हुये भी चलती है। परन्तु अगर कृषि क्षेत्र
की विपन्नता का कारण कृषि क्षेत्र से पूंजीदोहन का प्रणाली में है, तो
इसके रहते हुए कृषि विकास के सारे आयोजन वास्तव में समृद्धि के द्वार नहीं खोल
सकते हैं।
5. आर्थिक
परिवर्तन की प्रक्रिया
34.
उक्त आर्थिक विश्लेषण का सरलीकरण यही बनता
है कि पूंजीवाद (साम्राज्यवाद से अभिन्न साझे के साथ) तथा सामंतवादी परंपराओं
द्वारा संचालित भारतीय समाज वर्गों में विभाजित है।
सामाजिक श्रेणियों में विभिन्न स्तरों की वजह
से समाज में दोहरे तथा तिहरे शोषण की व्यवस्थायें चलती हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया
में निचले स्तर से समाज को संगठित करने के क्रम में तथा परिवर्तन की रणनीति में
संघर्ष के मुद्दे तथा नारे निर्धारित करने में अनेक जटिलतायें स्वाभाविक ही हैं।
क्षेत्रीय रूप में किसी भी स्तर पर आबादी का एक हिस्सा संगठित होकर वर्ग चेतना से
लैस होगा, तब भी उसके बीच हितों की टकराहट तथा भीतरी विभाजन बने रह सकते हैं।
इसी वजह से परिवर्तन के लिये संघर्ष की गत्यात्मकता (dynamics) में यह निहित
होगा कि वर्ग संघर्ष विविध स्तरों पर चलेगा। समाज और समय सापेक्ष होकर संघर्ष के
प्रत्येक स्तर की तीव्रता भिन्न-भिन्न हो सकती है।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन में गाँव की
महत्ता-समता और स्वतंत्रता के मिशन और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिये
संपूर्ण क्रांति आंदोलन की कर्मभूमि भारत के लाखों-लाख गाँव हैं। गाँव की गरीबी को
दूर करने की लड़ार्इ वस्तुत: वास्तविक समता और सामाजिक न्याय की स्थापना की
पूर्वशर्त बनेगी। इनके लिये गाँव से कर्इ बार दोहरे संघर्ष की रणनीति अपनानी पड़
सकती है। गांवों से वर्ग संघर्ष और गांवों के दोहन के खिलाफ व्यापक संघर्ष-इस
दोहरे संघर्ष को चलाने के पहले आवश्यक पूर्वशर्तें होंगी।
35.
परिवर्तन की प्रक्रिया में गाँवों का महत्व सबसे ज्यादा है। गाँवों में आबादी की
बहुलता ही इसके महत्व का मुख्य कारण नहीं है। वरन गरीब वर्गों की जड़ें अभी भी
मुख्य रूप से गाँवों में ही है। गाँव के बाहर गरीब वर्गों में मुख्य रूप से
असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। इनमें गैरकरखनिया दैनिक मजदूर तो है हीं, जिनके
रोजगार सिथर नहीं हैं। कर्इ खदान और कारखानों के मजदूर भी असंगठित क्षेत्र के
मजदूरों जैसी सिथति में ही हैं। इन क्षेत्रों के मजदूर मुख्य रूप से गाँवों से
पलायन कर के शहरों में बास जरूर करते हैं, परंतु इनमें ज्यादातर की बुनियाद (यहां
तक कि परिवार भी) गाँवों में ही है, ये मजदूर जहाँ रोजगार प्राप्त हैं वहीं
उनकी आर्थिक लड़ार्इ चलेगी। परंतु इस तथ्य के बावजूद कहना नहीं होगा कि गाँवों में
वर्ग संघर्ष की रणनीतिक परिधि में शहरी गरीब वर्ग भी आ सकते हैं। इसी अर्थ में
गाँवों में वर्ग संघर्ष अगर व्यापक स्वरूप ले तो देश को बदलने की दिशा बनेगी।
गाँवों
में वर्ग संघर्ष
36. गाँवों
में श्रेणियां क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग तरह के स्वरूप में हैं। भूमिहीन मजदूर
प्राय: देहाती इलाके की एक निशिचत आबादी है। मध्य किसानों की सिथति और अनुपात
भिन्न हैं। बीच-बीच में अनुपस्थित भूपति अथवा भूमि की चोरी कर भूस्वामी बने हुए
लोग हैं। जहाँ इस तरह से कुछ हाथों में जमीन का अतिरिक्त केन्द्रीकरण
है उस इलाके में संपूर्ण क्रांति आंदोलन की सीधी सरल चुनौती, भूस्वामित्व
की प्रथा को समाप्त करने की है। 'जोतने बोने वाला जमीन का मालिक होगा -
यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए सं. क्रा का आरंभिक लक्ष्य होगा।
इसके अलावे वर्ग संघर्ष के कार्यक्रम सामंती
परंपराओं, मजदूर के सामंती ओर अमानवीय स्तर से मुक्ति बंधुआ मुक्ति अर्धबंधुआ
करने वाली परंपराओं से मुक्ति की चाह में होंगे।
37.
परंतु प्रक्रियागत विशेषताओं को चिनिहत करते समय हम यह स्पष्ट कर दें कि शांतिमय
वर्ग संघर्ष की अवधारणा के साथ सं.क्रां विचारधारा क्रांति के अद्यतनशास्त्र के
लिए महत्वपूर्ण योगदान बनेगा। ग्रामीण इलाकों में समाजिक श्रेणियों की (चाहे वह
जातिगत स्तर पर हो अथवा भौतिक साधनों के उपयोगा और उत्पादन के साधन पर नियंत्रण के
स्तर पर हो) निचली पायदान पर मौजूद समुदायों का संघर्ष जिन मुद्दों को अपना प्रमुख
और तात्कालिक नारा बना कर शुरू हो - वर्ग संघर्ष का रूप लेगा। समाज में काम कर रहे
हिंसा के (राज्य हिंसा सहित) समस्त रूप गरीब वर्गों के संघर्षों के खिलाफ उठते आये
हैं और आगे भी ऐसा ही होगा। ऐसे में गरीब वर्ग की लड़ार्इ को पहला और प्रमुख
लक्ष्यभेदन इस तरह करना है (क) कि आततायी हिंसा संगठन का, (ख) कि आततायी
हिंसा की भूमिका का, (ग) कि आततायी हिंसा के संभावित औचित्य का -
भेदन हो। भारत में गरीब वर्गों के जितने सारे यशस्वी उद्धरण हैं वे या तो इस प्रथम
लक्ष्यभेदन में ही अपने क्षरण की ओर बढने लगे हैं या समाज की जटिलता के अनुरूप सतत
संघर्ष की सामर्थ्य नहीं जुटा पाये हैं।
शांतिमय
वर्ग संघर्ष
38.
परिवर्तन की प्रक्रिया में शांतिमय वर्ग संघर्ष शासक व धनी वर्गों की आततायी हिंसा
के मुकाबले सफलता की व्यापक रणनीति से युक्त होगा।
इसलिए परिवर्तन की प्रक्रिया में इसका स्थान आरंभ में ही सुनिश्चित कर लेना उचित
नहीं है। परंतु हमारी धारा में चले ऐसे संघर्षों ने उन्हीं वर्गों के मिशन को वहां
से आगे जाने का रास्ता सुझाया है, जहां समानान्तर धारा के रूप में
कार्यरत नक्सली हिंसा चूक जाती है। शांतिमय वर्ग संघर्ष के माध्यम से आर्थिक सत्ता
को विकेनिद्रत करने और स्त्री-पुरूषों को आत्मशासी नागरिक की भूमिका में विकेंद्रित
राजनैतिक शक्ति के रूप में क्रियाशील करने का अभ्यास
सफल हुआ, चल रहा है, और चलेगा। दलित वर्गों का संघर्ष
शांतिमय वर्ग संघर्ष के रूप में समाज का मार्गदर्शन बनता है तब अन्य सभी प्रकार की
आजादी के लिए चलने वाले संघर्ष के लिए (जैसे पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष के लिए) उपयुक्त मार्ग बताते हुए चलेगा।
गाँवों
के शोषण के खिलाफ किसान आन्दोलन
39.
औद्योगिक
व्यवस्था के पक्ष में कृषि क्षेत्र के दोयम स्थान को बदल देने के लिए किसान संघर्ष
हमारे आंदोलन के लिए अनिवार्य संघर्ष है। किसान सबसे बड़ा उत्पादक तबका होने के
नाते अपने उत्पादन के लिए सही कीमत का निर्धारण करने में राष्ट्रीय मूल्य नीति को
निर्धारित करने की सामर्थ्य में आये, यह सं क्रा आंदोलन की सदिच्छा मात्र
नहीं है।
देश के प्रभावी क्षेत्रों में श्रेणियों की जो
बाधा है उसकी उपेक्षा कर के ऐसे किसान आंदोलन नहीं चलाये जा सकते हैं। इसलिए गाँव
को दोहरे स्तर के संघर्ष की युक्ति से भी सुसजिजत
होना पड़ सकता है। किसान आंदोलन को खड़ा करने में सं. क्रा आंदोलन श्रेणियों के
बीच साझे का कोर्इ माडल तैयार कर सकता हो तो उसकी कुछ अनिवार्य पूर्व शर्तें
होंगी। साझे के संघर्ष का आधार ही यह रहेगा कि उसमें अपेक्षया गरीब तबके का नारा
ऊपर रहेगा, इन्हीं शर्तों पर साझे के मुद्दे लिये जायेंगे।
किसान आंदोलन अगर कृषि उत्पादन की कीमत बढ़ाने
की मांग करता है तो उसके विक्रय मूल्य को नियंत्रित करने की वैसी बाजार व्यवस्था
की मांग भी उसी दौरान ही आएगी जिससे उत्पादन के दाम बंधे रहें। सबसे बड़ा उत्पादक
तबका होने के नाते संगठित किसान आंदोलन के ऊपर औद्योगिक कीमतों को
नियंत्रित रखने की मांग के बगैर अकेले केवल दाम बढ़ाने का आंदोलन छोटे किसान और
भूमिहीन मजदूरों के हित में नहीं हो सकता।
गाँव
का पुनर्गठन
40.
संपूर्ण क्रांति आंदोलन इस तरह गाँवों को वर्ग के आधार पर विभाजित करने और गांवों
को संगठित करने-दोनों रास्तों को क्षेत्र और परिसिथति सापेक्ष अपना सकता है। भारत
में क्षेत्रीय स्तर पर असमान विकास के स्तर के अनुरूप गाँव और ग्रामीण
अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित और समृद्ध करने के लिए संपूर्ण क्रांति आंदोलन विविध
आंदोलनों के गुलदस्ते के समान होगा।
गाँवों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शहरों को,
खासकर
शहरों की उन आबादियों को विस्तृत अवलंब (टिकने का आधार) देगी जो गाँवों से रोजगार
की तलाश में भटक कर रोजगार पा रहे हैं, पर अपना सामाजिक आधार नहीं बना पा रहे
हैं।
1. गाँवों में खेत जोतने बोने वालों की मिलिकयत
हो (वैसे नियमन के साथ जिससे बिक्री द्वारा खेतों का केन्द्रीकरण संभव नहीं हो।)
2. खेत की उपयोगिता के अनुरूप उसके साथ जुड़े हुए साधन और श्रमशक्ति का संतुलन हो। 3. गांव के उधोग और तकनीकी को प्रोत्साहन हो। तथा 4.
गांव आत्मशासी इकार्इ के रूप में काम करने लगें। उक्त आधार पर गाँवों के पुनर्गठन
की योजना को मान्य करना होगा।
उद्योगों
के संचालन की वैकल्पिक व्यवस्था
41. संपूर्ण
क्रांति आंदोलन को इस प्रश्न का जवाब खोजना है कि बड़े-बडे़ उधोगों के प्रबंधन और
मिलिकयत का कौन सा माडल कायम हो सकेगा। औद्योगिक व्यवस्था को विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था
के अनुरूप खड़ा करना होगा। इसके लिए उत्पादन को लघु उद्योगों के अनुरूप पुनर्गठित
करना पड़ सकता है। परन्तु जो मध्यम और बड़े उद्योग रह जायेंगे, उनकी
मिलिकयत का सवाल रह ही जायेगा। जिन उद्योगों को खड़ा करने में पूरी अर्थव्यवस्था
से पूँजी का दोहन किया गया है उनका मालिक उन उद्योगों के मजदूरों की सहकारी
व्यवस्था को ही बनाने अथवा उन उद्योगों को समाज के नियोजन में लाने का क्या रास्ता
होगा, यह निर्धारित करना होगा।
हम उद्योगों के राष्ट्रीयकरण को कोर्इ समाधान
के रूप में नहीं देखते। लोकतांत्रिक शासन के माध्यम से जनता के क्रियाशील नियंत्रण
में औद्योगिक
व्यवस्था को लाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जायेगी। ऐसे नियमन होंगे जिनसे उधोग
स्वेच्छाचारी हितों के लिए नहीं चलाये जा सकें। उधोगों के प्रबन्धन में मजदूरों की
भागीदारी स्पष्ट और सुनिश्चित करनी होगी। परंतु यह प्रश्न समाज के पुनर्गठन के बाद
ही तय होगा कि कौन-कौन से उद्योगों किन संस्थाओं के अधीन कर दिये जायेंगे। विकेन्द्रित
राजनैतिक व्यवस्था में उद्योगों की मिलिकयत का वैसा ढांचा सुनिश्चत किया जा सकता
है। परन्तु इतना तय है कि औद्योगिक नीति में प्रभावी बदलाव के जरिये श्रम-आधारित
कार्यशाला और कुटीर उधोग आधारित उत्पादनों को प्रेरित किया जायेगा। जिसमें उत्पादक
श्रमिक और मालिक निजी तौर पर या सहकारी रूप में खुद मालिक भी होंगे।
42.
भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी दोहन से मुक्त रखी जा सके, इसके लिये
विकल्प का यह रास्ता नहीं हो सकता कि भारतीय पूंजीवाद को बाहरी हस्तक्षेप के खतरे
से मुक्त तथा एक बन्द अर्थव्यवस्था में परिणत कर
दिया जाये।
परंतु आर्थिक नियमन की दिशा यह रहेगी कि विदेशी
पूंजी और तकनीक के साथ साझे में भारतीय हितों का स्थान सर्वोपरि हो। आर्थिक क्रिया
को जनता के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेने के संदर्भ में विदेशों पर हमारी निर्भरता
तो और अधिक आत्मघाती होगी। अतैव यह सबसे जरूरी होगा कि देश की जरूरतों के अनुरूप
तकनीकी सामर्थ्य की संपन्नता बढ़ाने पर हमारा बहुत अधिक जोर रहे, ताकि
हम अन्य देशों के साथ आर्थिक क्रिया करते वक्त भी राष्ट्रीय स्तर के हितों की ओर
से निशिंचत रह सकें। देश के प्रमुख कच्चे मालों को औने-पौने भाव में महाशकितयों को
बेचने जैसे रिश्तों को हमें समाप्त कर देना होगा।
दूसरे देशों के साथ-साथ आर्थिक रिश्तों में
राष्ट्रीय हित का स्थान सर्वोपरि रहे-इसका आधार इन्हीं बातों में निहित है कि
भारतीय उधोगों के संचालन में जनता की क्या भूमिका है।
सारत:
43. इस
तरह पूंजीवाद को समाप्त करने की युक्त एक तरह से कृषि अर्थव्यवस्था को मुक्त करने
पर ही संभव है। यही नहीं औद्योगिक श्रमिकों के संघर्ष तथा ट्रेड यूनियनों की
मौजूदा दिशा को बदल व तीव्र कर ही पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष बनेगा और पूँजीवादी
स्वामित्व के मुकाबले सामाजिक स्वामित्व के वैकल्पिक माडल के बिना पूंजीवाद
पूर्णत: समाप्त नहीं हो जायेगा। इस तरह पूंजीवाद से निजात का संघर्ष समाज के
पुनर्गठन की प्रक्रिया में ही विकसित हो सकता है।
यही वजह है कि गाँवों के पुनर्गठन का संघर्ष
आरम्भ से ही सामंती परंपराओं तथा पूंजीवादी और साम्राज्यवादी दोहन के खिलाफ व्यापक
रणनीति से युक्त संघर्ष की दिशा में अग्रसर होगा और इस तरह पूरे समाज के पुनर्गठन
के लिये व्यापक संघर्ष का रूप लेगा। व्यापक संघर्ष की भूमिका को समझते हुए ही गाँव
के मजदूरों का संघर्ष, किसान आन्दोलन तथा असंगठित क्षेत्र की जनता का
संघर्ष आरम्भ से ही इस सावधानी से युक्त होगा कि उस दौरान पूंजीवाद और
साम्राज्यवाद को तोड़ने की युकित भी अभिन्न रहे।
विकल्प खड़ा करने की भूमिका में यह आवश्यक
दायित्व है कि असमान क्षेत्रीय विकास नीति को चुनौती देने वाले राष्ट्रीय
कार्यक्रम से युक्त सं. क्रां. आंदोलन हो सके। सं.क्रां आंदोलन देश की समृद्धि के
लिये है। वैसे राष्ट्रीय मांगपत्र को मान्य करवाने का दायित्व सं क्रां आंदोलन पर
है जो विकास की उस नीति को रोक पाये जिससे असमानता पैदा हो रही है। अर्थात
सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का दायित्व एक वैकलिपक योजना माडल को देना है। यह भार हम
स्वीकार करते हैं। इसके आधार पर हमारे राष्ट्रीय मांगपत्र के सूत्र निरूपित किये
जायेंगे।
प्रक्रिया
से लक्ष्यसिद्धि
44. उक्त आर्थिक विश्लेषण के बाद इस मसौदे की मर्यादा की कुछ विनम्र स्वीकारोक्तियाँ
हैं। वस्तुत: भारतीय समाज में पूँजी और सामंती परंपराओं का असितत्व किस तरह भारतीय
जनता की दरिद्रता और गैरबराबरी तथा कर्इ मायनों में गुलामी का आधार बना हुआ है,
इसे
ठीक-ठीक चिनिहत करना तथा इन सबमें मूलभूत बदलाव लाने और प्रगति का सुदृढ़ रास्ता
खोज निकालने के प्रति ही संपूर्ण क्रांति विचारधारा समर्पित है। अतएव
साम्राज्यवादी दोहन, पूँजीवाद, खेतिहर गरीब
वर्गों के दोहरे शोषण तथा उधोगों द्वारा कृषि को निचोड़ने जैसी प्रवृत्तियों का जो
भी चित्र इस मसौदे में रखा गया है, वह महज एक दिशा निर्देशन हैं। उद्योग तथा कृषि
व्यवस्था की विवेचना इस मसौदे में संपूर्ण क्रांति आंदोलन की इस धारा के कुछ
क्षेत्रीय अभ्यास की निष्पत्ति है तथा कुछ निष्पत्तियाँ वैसी कुछ मान्यताओें पर
आधारित अध्ययन के परिणाम हैं जो वास्तविक स्वतंत्रता और समता के मूल्य से प्रेरित
है। इस विश्लेषण से कुछ तात्कालिक तथा कुछ दीर्घकालीन कार्यक्रमों के लिये दिशा
निर्देशन मिल सकता है। परंतु लोकतांत्रिक समाज को लक्ष्य मानकर प्रगति के लक्ष्य
का बोध आन्दोलन की प्रक्रिया से ही होगा। इसी संदर्भ में हमने शुरू में ही लक्ष्य
के लिए प्रक्रिया निर्धारित करने तथा प्रक्रिया से लक्ष्य निरूपित करने के उभयभावी
रास्ते को इस धारा की विशेषता के रूप में बताया है।
दोहरे
संघर्ष की प्रक्रिया
45. सामाजिक अंतर्विरोधों में आर्थिक सत्ता को मूल
और अन्य अंतर्विरोधों को अधिरचना नहीं मानने की वैचारिक अवधारणा संपूर्ण क्रांति
आंदोलन को बहुआयामी संघर्ष बना देती है। अर्थात एक साथ बहुमुखी संघर्ष चलेंगे।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन के कार्यक्षेत्रों का विशिष्ट योगदान यह रहा है कि इसने
अपने प्रयास से दोहरे संघर्ष की प्रक्रिया पर लगने वाले प्रश्न चिन्ह की अनर्गलता
साबित की है। उदाहरण के लिए सं क्रां आंदोलन में आर्थिक सत्ता को चुनौती देने वाले
संघर्ष के दौरान, अपनी असिमता, स्वामित्व के
अधिकार के लिये, स्त्री-मुक्ति संघर्ष
का साथ-साथ चलना इसी विचार के अधीन संभव हुआ है। दोनों संघर्षो ने एक दूसरे पर
उभयभावी और सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है। उदाहरण के लिए, जमीन जोतने बोने
वाले की के मुख्य नारे पर जनान्दोलन की उस मिसाल को लें जहाँ इस आंदोलन में जमीन
को आजाद करने के संघर्ष में सित्रयों ने न केवल प्रबल भूमिका निभार्इ है, वरन
आजाद की गयी जमीन की मिलिकयत में अपना हिस्सा भी साथ-साथ तय किया है। संपूर्ण
क्रांति आन्दोलन ने इस तरह उभयभावी प्रभाव वाले संघर्ष का नेतृत्व प्रदान कर दोहरे
तथा बहुआयामी संघर्ष की मान्यता को प्रतिषिठत किया है।
6. अर्थव्यवस्था से परे
(शोषण की सामाजिक व्यवस्थायें तथा उनके
खिलाफ रणनीति)
जाति व्यवस्था और दलित संघर्ष का
स्वरूप
46. समता और स्वतंत्रता के मूल्यों के खिलाफ खड़ी
संस्थाओं मे जाति भी भारतीय संदर्भ में एक उल्लेखनीय संस्था है। जाति मूलत:
सामाजिक विभेद पर आधारित एक प्राचीन संस्था है। (1) जन्म या वंश के आधार पर समाज
का विभाजन होता है। (2) जन्म व वंश के आधार पर इन विभाजित समूहों की श्रेष्ठता व
हीनता का निर्धारण और विशेषाधिकारों व वर्जनाओं का नियमन होता है तथा (3) इन
विभाजित समूहों के बीच आपसी सम्बन्धों में खासकर नातेदारी के सम्बन्धों को
नकारात्मक रूप से नियंत्रित (प्रतिबनिधत) किया जाता है। ये ही जाति की संस्था के
निर्धारक आधार हैं। जातियों के आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में विशेषाधिकार व
वर्जनाओं की अभिव्यकित के आधार पर यह कहना कतर्इ सही नहीं है कि जाति आर्थिक या
राजनीतिक मूल की संस्था है।
ध्यान से देखने पर यह वास्तविकता दिखती है कि
ऊँची जातियों के लोगों को जो विशेषाधिकार प्राप्त हैं उनका आधार अमीरी यानी आर्थिक
नहीं है। जाति व्यवस्था के शीर्ष पर वे जातियां हैं, जिनको वह स्थान
उत्पादन साधनों पर उनके नियंत्रण या राज्यसत्ता पर उनके कब्जे की वजह से नहीं
प्राप्त है। ऐतिहासिक परिवर्तनों की प्रक्रिया और समकालीन संघर्षों की प्रक्रियाओं
के द्वारा जाति व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव से
भली-भांति व्यवस्था के मूलभूत स्वरूप को समझने में मदद मिलती है। भारत कर्इ
आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तनों से गुजरा है, पर जाति की संस्था आज भी अपने स्वरूप
में असितत्वमान है। दो दौरों को देखें-एक भारत की आजादी के बाद का ,तथा
दूसरा अंग्रेजों के जमाने का। राजनीतिक शासन में आये बदलाव और नये वर्गों के उदभव और विकास के साथ जाति का भीतरी गठन उक्त दौर में जितना टूटता या बदलता रहा, उससे ज्यादा यही
तथ्य दिखेगा कि नये शासकीय समीकरण जाति के साथ साझा बिठा कर ही चलते रहे हैं। भारत
में आर्थिक विषमता के खिलाफ कर्इ संघर्ष चले हैं। आज भी चल रहे हैं, पर
इन संघर्षों के प्रभाव में जाति की संरचना टूटती नहीं दिखती है। वरन सिथति तो यह
दिखती है कि एक ही आर्थिक समूह के बीच जातीय विभिन्नताओं के कारण अलगाव बना रहता
है, वर्गों के विकास व वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया जातीय सिथति के कारण
सीमित व अवरोधग्रस्त होती रही है, या जातीय-तनाव में बदल जाती रही है।
अतीत में राज्यसत्ता पर अपने दखल के कारण कुछ जातीय समूहों ने सामाजिक स्तरीकरण
में अपनी हैसियत बनायी, पर वह भी इस रूप में कि उन्होंने ऊँची जातियों
में अपने को समा लिया। आज के मतदान-आधारित चुनावी व्यवस्था में अपने विशाल
संख्याबल और उसकी गठित राजनीतिक अभिव्यकित के माध्यम से कुछ जातियों ने अपनी
सामाजिक हैसियत को बढ़ाने का क्रम जारी रखा है। पर ये परिघटनायें जाति के स्तरीकरण
के स्वरूप में हल्का फेर-बदल भर है। उसकी बुनियाद के भहरने का संकेत नहीं है।
47. जाति-संस्था की इस वास्तविकता के मद्देनज़र
संपूर्ण क्रांति आंदोलन जाति संस्था के ध्वंस को भी एक अनिवार्य संघर्ष के रूप में
मान्य करता है और जाति उन्मूलन का संघर्ष 1. जन्म आधारित विभाजन, 2.
महत्वक्रम, विशेशाधिकार व वर्जना तथा 3. सामाजिक
सम्पर्कहीनता के (अर्थात जाति के घेरे में नातेदारी व छूआछूत) खिलाफ केनिद्रत
होगा। इसी केन्द्रीय प्रहार को ध्यान में रखते हुए संघर्ष का संगठन और संघर्ष की
प्रक्रिया भी बनानी होगी। इसका तात्पर्य यह भी बनता है कि जाति-उन्मूलन का संघर्ष
किसी विशेष जाति समूह आधारित संगठन व संघर्ष के आधार पर चलकर अपना अनितम लक्ष्य
नहीं पा सकता। वरन जन्म आधारित सामाजिक विषमता को संपूर्ण रूप से नकारना ही इस
अभियान का मूल स्वरूप होगा। इस कथन का मतलब जाति-उन्मूलन संघर्ष में दलित संगठन व
संघर्ष की सकारात्मकता को नकारना नहीं है, बलिक उसकी सीमा व संभावित जड़ता के
प्रति सावधानी बरतना है। दलित-संगठनों व संघर्ष की स्पष्टत: सकारात्मक भूमिका है।
इनके कारण दलितों में असिमताबोध और आत्मविश्वास आया है। सामाजिक वर्जनाओं पर चोट
हुर्इ है। आर्थिक-राजनैतिक स्तर पर भूमिका बढ़ी है। सामान्य जाति आधारित सम्बन्धों
पर चोट हुर्इ है और संबंधों में कुछ परिवर्तन भी आये हैं। पर जन्म-आधारित स्तरीकरण
और नातेदारी के जाति-आधारित सम्बन्धों की अनिवार्यता के मूल पर कोर्इ प्रभाव नहीं
आया है। ये संघर्ष दलित जातियों की राजनीति में ही सीमित हो गये हैं।
व्यापक जाति-विरोधी संगठन की भी केन्द्रीय शक्ति
दलित ही होंगे। जाति उन्मूलन के संघर्ष को एक ओर महत्वपूर्ण पहलू को ध्यान में
रखना होगा। यह महत्वपूर्ण पहलू है-मौजूदा विवाह संस्था में औरतों की असिमताहीन
सिथति और जाति के बने रहने में उसकी भूमिका। इस संघर्ष को अनिवार्यत: विवाह की
संस्था के समतामूलक आधार पर पुनर्गठन और सित्रयों की असिमता के संघर्ष से जुड़ना
होगा। संपूर्ण क्रांति आंदोलन चल रहे दलित आंदोलन के साथ समर्थन का रिश्ता रखते
हुए जाति उन्मूलन के व्यापक संघर्ष को विकसित करेगां। आज की सामाजिक परिसिथति में
व सामाजिक रूप से पिछड़े व अन्य समूहों के लिए आरक्षण जाति उन्मूलन के अभियान का
एक अनिवार्य तथा प्रमुख पहलू हैं। इस कारण आरक्षण के समुचित प्रावधान की नीति का
पुनर्गठन और उन पर कठोर अमल का मुद्दा भी एक आवश्यक मुद्दा है।
सांस्कृतिक
असिमता
48. देश के विभिन्न अंचलों की आबादी अपनी अस्मिता
(identity) की
लड़ार्इ लड़ रही है। ये संघर्ष इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि आज देश की जो
व्यवस्था तथा विकास की पूरी पद्धति है उससे अनेकों इलाकों की मूल आबादी की असिमता
अथवा पहचान पर संकट बन आयी है। पहचान के संकट की इस समस्या के कर्इ आयाम हैं। इसी
कारण पहचानअसिमता के बचाव की आंचलिक लड़ाइयाँ भी अपने में कर्इ आयामों को समेटे चल
रही है। एक आयाम यह है कि राजनीतिक नीति-निर्धारण की जितनी भी राजकीय संस्थायें
हैं उनमें कुछ खास इलाकों का ही प्रभावी नियंत्रण है। ऐसे कर्इ इलाके हैं, जहाँ
के लोगों की नीति नियमन में नगण्य भागीदारी है। राजकीय संस्थाओं में इलाकों की
असंतुलित भागीदारी के कारण राजकीय नीति निर्धारणों तथा परियोजनाओं के निर्माण में
इन इलाकों के हित का प्रतिनिधित्व नहीं होता। परियोजनाओं से बने रोजगार के अवसरों
पर भी उन्हीं इलाकों के लोगों का दखल बनता है, जिन इलाकों की
आवाज का असर राजकीय संस्थाओं में हैं यानी व्यवस्था के केन्द्रीकृत स्वरूप और
विकास की मौजूदा पद्धति का यह नतीजा लगातार आता रहता है कि राजनीतिक या आर्थिक रूप
से पिछड़े अंचलों में स्थापित शासन व परियोजना की संस्थाओं में बाहरी आबादी आती
रहती है। विकास की संस्थाओं, उत्पन्न रोजगार व अन्य लाभों से
स्थानीय आबादी अधिकांशत: वंचित तो रहती ही है, बाहरी आबादी के
बड़े पैमाने पर आगमन से भी नयी किस्म की सिथतियां उभरती हैं। बाहर से आयी आबादी
आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर स्थानीय आबादी की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर होती है। लगभग
सारे मामलों में आगत आबादी की संस्कति भी अलग होती है। सांस्कृतिक अलगाव और बाहरी
आबादी की अपनी संस्कृति के प्रति श्रेष्ठता का भाव स्थानीय आबादी पर सांस्कृतिक
आरोपण के रूप में सक्रिय तथा प्रभावी होता है। इससे भी उस अंचल की जीवन पद्धति तथा
समुदाय, व्यवस्था तनावग्रस्त होती हैं, खंडित होती है
तथा आत्महीनता से ग्रस्त होती जाती है। आम आबादी इस सांस्कृतिक संकट से ही
मनोवैज्ञानिक तौर पर सबसे ज्यादा उत्पीडि़त होती है। परियोजना से उत्पन्न विस्थापन
और असंगत व अपूर्ण पुनर्वास के कारण भी स्थानीय व आंचलिक आबादी को असितत्व के संकट
से जूझना होता है। इतना ही नहीं, प्रचलित सामुदायिक जीवन पद्धति से भी
विस्थापन होता है। सांस्कृतिक अस्मिता के संकट को किसी भी पैमाने पर एक गौण संकट
के रूप में देखना सही नहीं है ,क्योंकि यह संकट किसी भी समुदाय को
आत्महीनता से ग्रस्त करता जाता है और इस तरह से उसके सही व सहज विकास के खिलाफ
अवरोध बन जाता है। विभिन्न संस्कृतियों के बीच के रिश्ते का आधार तभी सही माना जा
सकता है जब उनका सम्बन्ध श्रेष्ठता या हीनता, किसी भी किस्म
की मनोग्रंथि से ग्रस्त न हो। उसी तरह संस्कृतियों के बीच परस्पर प्रभाव और एक
नर्इ संस्कृति के पुनर्गठन को वहीं तक सही माना जा सकता है जहां तक उनकी आपसी
अंतक्र्रिया से एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ रहा हो। दबावहीन अन्तक्रिया ही सही
सांस्कृतिक आत्मसातीकरण (Assimilation)
की प्रक्रिया बना सकता है। श्रेष्ठताजनित आरोपण, बलपूर्वक
रूपान्तरण कभी भी सही सांस्कृतिक समन्वयन को जन्म नहीं दे सकता।
अस्मिता के लिए
संघर्ष
49. पहचान के संकट के खिलाफ चल रहे संघर्षों के
अनिवार्य हिस्से बनते हैं - 1. राजनीतिक संचालन में प्रभावी भागीदारी की संरचनाओं
के निर्माण की मांग, 2. परियोजनाओं के निर्धारण में क्षेत्रों के
जनमत को आधार बनाने तथा अभिव्यकित की मांग 3. संगत पुनर्वास व परियोजनाओं से उभरे
अवसर, रोजगार व अन्य लाभों में आरक्षण की मांग और 4. सांस्कृतिक आरोपण के
खिलाफ प्रतिरोधी अभियान। नया चल रहे आंचलिक अस्मिता के संघर्षों में कमोबेश ये
तत्व और तातिवक प्रवृत्तियां अलग-अलग परिमाणों में शामिल हैं। पहचान का संकट मनोगत
नहीं, वास्तविक है और यह पूरी व्यवस्था की प्रक्रिया से जनित संकट है। इस
रूप में संपूर्ण क्रांति आंदोलन आमतौर पर आंचलिक अस्मिता के आंदोलन के प्रति
संवेदनशील है और उन्हें समर्थनीय मानती है। पर यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है
कि इन आंदोलनों में सामुदायिक संकीर्णताओं, असंतुलित
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और सांस्कृतिक अंधगौरव की प्रवृतियाँ भी उपजती हैं या
उपज सकती हैं। सं क्रां आं इन नकारात्मक प्रवृतियों के प्रति सचेत व उन्हें दूर
करने के लिए सक्रिय रहते हुए इन आंदोलनों से जुड़ने और संकटग्रस्त व संवेदनशील
इलाकों में आंदोलनों के गठन की जरूरत समझता है।
पुरूषसत्तात्मक
व्यवस्था और स्त्री मुक्ति
50.
समाज के बुनियादी अंतर्विरोधों में से एक है यौनिक अंतर्विरोध। पुरूषत्तात्मक
व्यवस्था, शोषण की अन्य व्यवस्थाओं की तरह एक स्वतंत्र व्यवस्था होते हुए भी
राज्यसत्ता, आर्थिक सत्ता, जाति व्यवस्था
आदि के शोषणकारी मूल्यों से पुष्ट होती है और इन्हें पुष्ट करती है।
इधर हाल के वर्षों में समाज विकास के इतिहास
में स्त्री के स्थान को विश्लेषित करने की कुछ कोशिशें हुर्इ हैं, अन्यथा
इस पक्ष के प्रति इतिहास लेखन में पुरूषवादी उदासीनता काम करती रही है। स्त्रीवादी
दृषिटकोण से पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था को वर्गीय व्यवस्था के समानान्तर तथा
ऐतिहासिक व्यवस्था मानने के आधार सुदृढ़ हुए हैं। इतिहासकारो ने कुछ मातृआधारित
समाजों को मातृसत्तात्मक (Matriarchal)
व्यवस्था के रूप में चित्रित करने की भूलें की हैं। मातृवंशरेखीय
(मातृ आधारित) कबीलों में भी कबीलों की प्रधानता (Headship) में पुरूषों को ही स्थान मिलता है। महज
सित्रयों के नाम पर वंश चलाने वाले मातृआधारित समाजों को मातृसत्तात्मक व्यवस्था
के रूप में चित्रित करने की असंगत परम्परा रही है। समाज विश्लेषण के अर्थवादी
दृषिटकोण स्त्रियों के
शोषण के आर्थिक लक्षणों को आधार बनाकर पुरूषसत्तात्मक को एक स्वतंत्र व्यवस्था के
रूप में मान्य करने से इंकार करते आये हैं। इसमें यह विभ्रम ही निकलता है कि
स्त्री-शोषण की व्यवस्था वर्गीय व्यवस्था की अधिरचना मात्र है।
हमारे समाज में परिवार व्यवस्था से
लेकर राज्य व्यवस्था तक धर्म, संस्कृतियों, सामंतवादी तथा
पूँजीवादी रीति-नीति में विभिन्न स्तरों पर सित्रयों को दोयम दर्जा प्राप्त हैं।
गुलाम भारत में 1920 के दशक में मताधिकार का
प्रश्न जबसे उठा, तब ही से सित्रयों के मताधिकार के लिए आवाज उठी
थी। उसके अगले दशक से ही सित्रयों के लिए समाज में राजनैतिक अधिकार की मांग उठने
लगी थी। इसे भारत के आधुनिक इतिहास में सित्रयों का पहला संघर्ष कहा जा सकता है।
आजाद भारत में शासन की जो प्रातिनिधिक प्रणाली बनी उसमें पूर्ण बालिग मताधिकार में
स्त्रियों का दर्जा समान था। संविधान में भी स्त्रियों को समानता का दर्जा मिला।
आरम्भ में भारतीय संसद में भी औरतों की संख्या का अनुपात कर्इ घनी लोकतांत्रिक
परम्पराओं वाले देशों के मुकाबले ज्यादा था। परन्तु आरंभिक दौर का यह राजनैतिक
संकल्प बना नहीं रह सका, बलिक समानता और स्त्रियों की स्वतंत्र
भूमिका के समाजिक दृषिटकोण के अभाव में तथा इस कसौटी पर खरे स्त्री नेतृत्व और
स्त्रीवादी आंदोलन के अभाव में भारतीय राजनीति के उक्त विशिष्ट पहलू भी धूमिल होते
चले गये। परिवार व्यवस्था तथा पुश्तैनी सम्पत्ति के अधिकार के संदर्भ में धार्मिक
कानूनों को ही मान्यता दे दी गर्इ तथा दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) के माध्यम से
पुराने पुरूष-मूल्य शासन करने के मानदंड बने रहे।
आजादी के बाद राजनीति में स्त्रियों की
भागीदारी के माहौल के ऊपर शून्यता का प्रभाव पड़ने लगा। ऐसा इसलिए भी हुआ कि आजादी
के आन्दोलन में सित्रयों की भागीदारी आम तौर पर 'आपात-धर्म
निभाने के रूप में ही हुर्इ थी।
51.
भारत में अलग-अलग क्षेत्रों और संस्कृतियों में स्त्रियों के स्थान में
भिन्नता देखी जा सकती है। परन्तु धार्मिक संस्कृतियों में स्त्रियों के प्रति आम
तौर पर असहिष्णुता ही व्याप्त है। भारत में न केवल हिन्दू और मुसिलम धर्म संहिता
वरन क्रिस्तान संहिता भी रूढि़वादी ही है। अल्पसंख्यक समुदायों में रुढियाँ अधिकार
का मसला बनकर कट्टरता का रूप ले लेती है। हिन्दू धर्म में स्त्रियों को शूद्र का
दर्जा तथा प्रचलित इस्लामी मान्यताओं के आधार पर स्त्रियों को गैर नागरिक दर्जा ही
दिया गया है। धर्म-संस्कृति स्त्रियों के
प्रति असहिष्णु हैं, और इस तरह से कुछ अर्थों में स्त्री-विरोधी
हिंसा का संरक्षक हैं। सामाजिक श्रम विभाजन पुरूषों की प्रधानता को स्थापित तथा
स्त्री श्रम को नियंत्रित करने वाला है। अवैतनिक तथा घरेलू श्रम स्त्रियों के जिम्मे
हैं तथा घर के बाहर भी समान काम के लिए असमान वेतन तथा वैसे काम जो विशेषाधिकार
प्रदान करते हैं, पुरूषों के जिम्मे रखने जैसी परिपाटी चलती है।
तकनीक का विकास स्त्रियों को दृषिटकोण में रखकर नहीं हो रहा है और इस तरह बलात
छँटनी को प्रेरित करता है। मौजूदा विकास नीति स्त्रियों को ध्यान में रख कर प्राय:
नहीं बनायी जाती है।
परिवार व्यवस्था में स्त्री या तो पिता अथवा
पति द्वारा संरक्षिता है या पुत्र पर निर्भर। परिवार व्यवस्था तथा विवाह संस्था की
बनावट ही ऐसी है जिससे स्त्रियों का अपना कोर्इ घर नहीं होता है। घर अथवा वंश
पुरूषों के नाम से ही चलते हैं। भारत में दहेज प्रथा का प्रभाव, दहेज
विरोधी सुदृढ़ कानून में छेद बनाकर ही प्राय: हर धर्म संस्कृतियों में मौजूद है।
यह प्रथा नूतन परिवारों की संरचना में पुरूषों के बर्चस्व को बहुत उग्र रूप में
सुदृढ़ करने वाली प्रथा है।
इतना ही नहीं, बलात्कार तथा
स्त्री के खिलाफ हिंसा हर स्तर पर स्त्री समाज को गतिहीन बनाये रखने के लिए
जिम्मेदार है। परन्तु समाज तथा राज्य की सिथति स्त्री विरोधी हिंसा को अनुमोदन
देने की ही रहती है। राज्य के सैनिक बल के द्वारा सामुहिक बलात्कार की घटना को
अपवाद स्वरूप माना जाता,अगर ऐसे मामलों के प्रति 'अपराधी
को अपराधी मानने की प्रशासनिक चुस्ती दिखलार्इ देती। परन्तु ऐसे मौकों पर राज्य
अनुमोदन द्वारा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ अपने उग्र साझे का ही प्रमाण देता
रहता है। शिक्षण संस्थाओं में युवतियाँ छेड़खानी
के आतंक से ग्रस्त रहती हैं। समाज में भी ऐसा ही प्रचलन है।
भारत
में नारीवादी आंदोलन
52. भारत
में बलात्कार कानूनों में परिवर्तन की मांग 1977 से तथा 'मथुरा’ बलात्कार कांड में दोषी पुलिस जवानों
के न्यायालय से छूट जाने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन के जरिये उठार्इ गयी थी।
1977 से लोकतांत्रिक माहौल की पुन: बहाली के बाद (यानी आपात स्थिति के बाद) भारत
में नारीवादी आंदोलन ने स्पष्ट तेवर ग्रहण करना शुरू कर दिया । 'मथुरा’
उस समय प्रतीक बनी थी, जिसकी धुरी पर राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रियों की अस्मिता
के स्तर का समन्वयन हुआ था। इसके बाद बलात्कार कानून में हल्का संशोधन कर के जेल,
हाजत
तथा अस्पताल में 'कस्टडी’ में रखी गयी स्त्री के साथ बलात्कार के
मामले में भुक्तिभोगी स्त्री के बयान को आरंभिक प्रमाण मानने की व्यवस्था बनार्इ
गयी। ऐसे मामले में अभियुक्त पर ही अपने को दोषमुक्त करने की जिम्मेदारी आ जाती
है।
नारीवादी आंदोलन के मौजूदा दौर के पहले
स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से स्त्रियों के लिए विकास कार्यक्रम तथा शिक्षण के
कार्यक्रम चलाये जाते थे। मान्यता के तौर पर समझा जाता था कि आर्थिक अवसरों तथा
शिक्षा के माध्यम से स्त्रियों को मुख्यधारा में समाहित किया जा सकता है। इसके
पहले कुछ राजनीतिक पार्टियों तथा संगठनों द्वारा नेतृत्व तथा कार्यक्रम में स्त्रियों
को सहयोगी भूमिका में स्थान दिया जाता था। परन्तु यह सभी मूल रूप से पुरूषों की
प्रधानता को मानकर ही चलने वाले प्रयास थे।
इन सब के विपरीत समाज में स्त्री-विरोधी हिंसा
के खिलाफ जुझारू आंदोलन का रूप लेकर नारीवादी आंदोलन में निखार आ रहा है। बहस के
स्तर पर इस आंदोलन ने व्यापक प्रभाव बनाया है। विभिन्न परिवर्तनवादी समूहों के बीच
भी नारीवादी आन्दोलन से प्रेरित बहस तेज हो गयी है। यहां तक कि मार्क्सवादी
रूढि़यों को चुनौती देते हुए कुछ नक्सली समूहों के बीच यह बहस तेज हुर्इ है।
संपूर्ण क्रांति धारा में प्राय: नारीवादी दृषिटकोण के प्रति स्वागत भाव रहा है।
यही वजह है कि स्वामित्व की पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था को विकल्प देने का यशस्वी
अभ्यास संपूर्ण क्रांति आंदोलन के क्षेत्र में ही हुआ है। इसे नारीवादी आन्दोलन ने
भी स्वीकारा है कि बोधगया में शांतिमय वर्ग संघर्ष से मुक्त कराये गए जमीन के
पर्चों में सित्रयों का नाम दर्ज कराया जाना एक अनुकरणयी विकल्प है।
हम समानता पर सिथत समाज व्यवस्था में पुरूषों
के बराबर ही मुक्त स्त्री की कल्पना करते हैं। इसके लिए सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन
के दौरान हर स्तर पर सित्रयों की समानता के लिए विशेष रणनीति तथा कार्यक्रम
साथ-साथ चलाने होंगे। यही नहीं, स्त्री मुकित के आन्दोलन अलग से और
स्वतंत्र ढ़ंग से चलें-इसको भी हमारी धारा का प्रोत्साहन होगा। इस संदर्भ में स्त्रियों
के अलग संगठन की आवश्यकता भी है। अन्य आंदोलनों की तरह स्त्री मुकित आंदोलन
संपूर्ण क्रांति आन्दोलन का एक अनिवार्य हिस्सा है और इसी के साथ-साथ स्त्री
आन्दोलन की दिशा यही बनानी होगी कि समाज के अन्तर्विरोधों के खिलाफ भी रणनीति
इसमें शामिल हो।
संपूर्ण क्रांति विचार जिस वैकलिपक संस्कृति के
प्रति प्रतिबद्ध है उसमें स्त्री पुरूष के बराबर ही स्वतंत्र जैविक तथा सामाजिक
इकार्इ होगी। स्त्री-पुरूषों के बीच आपसी रिश्ता बराबरी का, परंतु सहयोग का
होगा। इस तरह स्त्री-पुरूषों के साझे के आधार पर बर्चस्वविहीन परिवार व्यवस्था का
विकल्प भी हमारे आन्दोलन का लक्ष्य होगा। यही नहीं, विवाह संस्था के
स्वरूप में भी गुणात्मक परिवर्तन आयेगा। धर्म और जाति का विवाह जोड़ों के निर्धारण
में कोर्इ स्थान नहीं होगा। वरन स्वतंत्र स्त्री और सित्रयों की स्वतंत्रता के
पक्षधर समाज से जाति व्यवस्था व परिवार की मौजूदा व्यवस्था को चुनौती मिलेगी तभी
घर वास्तविक अर्थों में सित्रयों का भी घर बन पायेगा।
साम्प्रदायिकता
53.
साम्प्रदायिकता समाज को बांटे रखने के उग्र होते जा रहे उद्धरणों के साथ भारत में
महत्वपूर्ण सामाजिक संकट बन गया है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण के रास्ते
में साम्प्रदायिक अलगाव तथा उन्माद की वजह से बाधा आती है। भारत जैसे महान देश की
जटिलताओं के मुकाबले राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया अनवरत चलनी चाहिए। राष्ट्र
निर्माण के लिए राष्ट्रीय संकल्प का वातावरण धीरे-धीरे शिथिल होता चला गया है।
इसके साथ इस हेतु राष्ट्रीय नेतृत्व का भी अभाव बन गया है।
हिंसा का बढ़ रहा प्रचलन भी साम्प्रदायिक
उन्माद का कारण है। एक समुदाय हिंसक तरीके से अपने हितों का संघर्ष चलाता है तब भी
उसके साम्प्रदायिक रूख लेने की संभावना बन जाती है। परंतु जहाँ प्रगतिशील सामाजिक
परिवर्तन के लिये हिंसा के रास्ते अप्रभावी महसूस किये जा रहे हैं वहीं समुदायों
का विक्षोभ हिंसक रास्तों को अपनाने के लिये उद्धत हैं। ऐसा इसलिए भी है कि
लोकतांत्रिक तरीके से समुदायों, खासकर अल्पसंख्यक समुदायों के
आत्मांगीकरण (एसीमिलेशन) की प्रक्रिया कमजोर पड़ी है। भारत में लोकतंत्र की वजह से
बहुमत का तंत्र है। अल्पसंख्यक समुदायों की वास्तविक आकांक्षाओं का आदर करना
लोकतंत्र की सफलता की विशेष शर्त होती है। यह काम बिगड़े हुये रूप में चला है। कुछ
अल्पसंख्यक समुदायों को उनके पोंगापंथ और रूढि़यों के साथ तुष्टीकरण की नीति की
वजह से अपनी ही सीमा और दरिद्रता में सिमटे रहने दिया गया है। समाज की मुख्यधारा
में शामिल होने से अवरूद्ध वातावरण में अल्पसंख्यक समुदाय के अन्दर अतिरिक्त
परिमाण में असुरक्षा की भावना घर कर जाती है।
राज्य द्वारा सार्वजनिक जीवन में
धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का भी ठीक तरह से पालन नहीं किया जाता है।
सर्वधर्म-समभाव तथा सदभाव के नाम पर धर्म, धार्मिक अंधविश्वास तथा इससे आगे बढ़कर
असहिष्णुता की इस संस्कृति को भी प्रोत्साहन मिलता है।
इसके मुकाबले सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन
राष्ट्रनिर्माण तथा धर्मनिरपेक्षता हेतु राष्ट्रीय संकल्प का निर्माण करेगा। इस
तरह आधुनिक विचार पर आधारित मानवीय तथा सहिष्णु समाज तथा न्याय के सिद्धान्तों पर
आधारित राष्ट्र का लक्ष्य सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का लक्ष्य होगा।
बुद्धिवादी
सांस्कृतिक आंदोलन
54.
संपूर्ण क्रांति आंदोलन, इस प्रकार सांस्कृतिक पुनर्गठन का
आन्दोलन है। यह एक तरह के सांस्कृतिक पुनरूत्थान (रेनेशां) का आंदोलन होगा।
रूढि़यों तथा अंधविश्वासअंधश्रद्धा पर आधारित पुरातन विचार बनाम आधुनिक तथा
बुद्धिवादी (रैशनल) विचार के बीच अंतर्विरोध तो समाज में है ही। संपूर्ण क्रांति
आंदोलन धार्मिक असहिष्णुता पर आधारित सांप्रदायिक विचारधारा, र्इश्वरवाद,
पुनर्जन्म
सिद्धान्त, भाग्यवाद, अंधविश्वास,
अस्पृश्यता
तथा सामाजिक रूढि़यों के मुकाबले समाज में सांस्कृतिक पुनर्गठन को अपना महत्वपूर्ण
अभियान बनायेगा।
समाज में र्इश्वरवाद (दैववाद) ऐसी बुरार्इ है
जो समाज-विकास को गतिरूद्ध करने वाले कर्इ रूढि़यों तथा कर्मकाण्डों का कारण है।
धार्मिक कर्मकाण्ड सांप्रदायिक टकराहट के रूप में किस कदर प्रोत्साहन दे सकते हैं
इसकी मिसाल भारत में आजादी के पहले से लेकर अब तक बहुत ही स्पष्टता से उच्चारित
होते आये हैं। इस तरह आधुनिक तथा रैशनल विचार पर आधारित मनुष्य तथा समाज का
निर्माण राष्ट्र निर्माण की आवश्यक पूर्वशर्त है।
7 .शांतिमयता
हिंसक संघर्षों
की सीमा
55. हिंसक क्रांति से कभी लोकतंत्र की निष्पत्ति
नहीं हो सकती है। वरन हिंसक क्रांतियों का एक अनुभव यह है कि क्रांति के बाद हिंसा
और प्रतिषिठत रूप से संगठित हो जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रांस की क्रांति
से तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में रूस में अल्पसंख्यक राज्यक्रांति
को तथा चीन में बहुसंख्यक किसान विद्रोह को क्रमश: अराजक राजतंत्र, जार
तथा युद्ध सरदारों के मुकाबले हिंसक संघर्षों को जो राजनैतिक सफलता मिली थी वह
दमनकारी राज्य के समकालीन नियंत्रण के खिलाफ संभव नहीं हो पा रहा है। वरन हिंसक
संघर्ष के प्रत्येक भारतीय मिसाल राज्य हिंसा को कारगर चुनौती देने की जगह महज अस्थिरता
पैदा कर पाये हैं। इस तरह अस्थिरता के माहौल में दमन के माध्यम और अधिक संगठित ही
हुये हैं। इस शताब्दी के उतरार्द्ध में सबसे प्रेरणादायक हिंसक संघर्ष वियतनाम में
हुआ था। वियतनामी संघर्ष से बने रास्ते की निष्पत्ति यह बनती है कि आधुनिक सामरिक
युग में हथियारों का रास्ता अंतत: बड़े राष्ट्रों के हाथों खेलने का ही रास्ता है।
आज रूसी अंतर्राष्ट्रीय के हक में वियतनामी सेना का खेलना यही दास्तान कह रहा है।
नक्सल
विद्रोह
56. हम शांतिमय संघर्ष के प्रति अपनी दृढ़ता
व्यक्त करने के पहले भारत में चार दशक से चल रहे हिंसक नक्सली विद्रोहों को भी
संक्षेप में विश्लेषित करें। ये विद्रोह गाँव के गरीब वर्गों, खासकर
खेतिहर श्रमिकों को भारतीय राजनीति में स्थान दिलाने के संदर्भ में है। राजनीति
में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद किसी भी इलाके में इन्हें सफलता नहीं मिली
है। इलाके को मुक्त कर गुरिल्ला युद्ध द्वारा क्षेत्र विस्तार करने की अपनी घोषित
नीति में इन्हीं सफलता नहीं मिली है। यही नहीं, जमीन जोतने बोने
वालों की जैसे प्रबल आरंभिक मांग और नारे को सफल करने में उनको उतनी भी सफलता नहीं
मिली है जितनी शांतिमय संघर्ष वाले क्षेत्रों में मिली है। परंतु वे अपने आधार
इलाके में क्षेत्रबदल के द्वारा देश के नक्शे पर बिहार, झाड़खंड छतीसगढ़,
ओडिशा,और
आंध्र के कुछ इलाके में प्रभावी जरूर हैं। वे अपने अर्जित जनसमर्थन को खुले मंच और
आंशिक शांतिमयता की रणनीति द्वारा बचाये रखने के लिए काफी प्रयत्नशील हैं। ऐसी
सिथति में वे हिंसा तथा आंशिक शातिमयता और इसी तरह भूमिगत और खुली राजनीति के
तनावपूर्ण दौर में रह कर इससे उबरने की मुकम्मल सीढ़ी नहीं बना पा रहे हैं। उनकी
विफलता का मुख्य कारण ही है कि आधुनिक राज्य और सामंती राज्य में फर्क को वे हिंसक
माध्यमों के प्रति आत्यंतिक विश्वास की वजह से निश्चित नहीं कर पा रहे
हैं।
शांतिमय
प्रयास और शांतिमयता की विशेषता
57. उक्त अनुभवों के
मुकाबले भारत में खासकर विगत लगभग तीन दशक में अनेक शांतिमय संघर्षों ने व्यापक
जुझारू रूप लिये हैं। इन्होंने सामंती परंपराओं तथा मौजूदा विकास नीति के खिलाफ
आरंभिक सफलता की यशस्वी मिसालें कायम की हैं। इन्होंने राज्य हिंसा के कर्इ उग्र
मौकों को प्रभावहीन बनाया है। यही नहीं, इन संघर्षों की अनिवार्य निष्पत्ति
राज्य हिंसा को सुदृढ़ करने की जगह अनौचित्य प्रदान करने में हुर्इ है। जागतिक
परिसिथति में शांतिमयता की श्रेष्ठता कर्इ संगठित और स्वत: स्फूर्त प्रयासों से
दृढ़ हो सकी है। इस तरह सं क्रां आंदोलन के द्वारा शांतिमय संघर्षों की ये मुख्य
विशेषतायें सुनिशिचत होती हैं (क) शासक वर्ग को दमन का औचित्य सिद्ध करने का मौका
न्यूनतम रह जाता है। (ख) मानव द्वारा निर्मित संहारक हथियारों की उपयोगिता निरस्त
होती है। (ग) संघर्ष की संपूर्ण प्रक्रिया तथा नीति निर्धारण में जनता की सीधी
भागीदारी के लिए मौके अधिकतम रहते हैं। (घ) वैचारिक परिवर्तन द्वारा समाज के सभी
वर्गों तबकों में से प्रगतिशील व्यकितयों को क्रांति की प्रक्रिया में विभिन्न
स्तर पर बनाने की संभावना अधिकतम बनी रहती हैं। (³) प्रतिक्रांति की संभावना
न्यूनतम रह जाती है। (च) शोषक वर्गों की हिंसा तथा राज्य हिंसा को संगठित और पुन:
प्रतिषिठत होने का मौका कम होता चला जाता है तथा (छ) शांतिमय संघर्ष में लोकतंत्र
की निष्पत्ति के तत्व अंतर्निहित होते हैं।
शांतिमय
संघर्ष के सामने एक प्रमुख चुनौती
58. समाज में मौजूदा प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष हिंसा के मुकाबले व्यकितगत पराक्रम कारगर नहीं हो सकता है। न हिंसक
तरीके से और न ही व्यकितगत पराक्रम पर आधारित अहिंसा से। शांतिमय संघर्ष उक्त
दोनों रास्तों के मुकाबले सामूहिक संघर्ष की प्रक्रिया है। जिसके लिए संघर्ष,
उसका
ही संघर्ष, यह शांतिमय रणनीति की पूर्वशर्त है। अनुभव यह
बतलाते हैं कि नेतृत्व का कौशल, संगठन तथा जनान्दोलन पर उसका असर ठीक
रहा तो शांतिमय संघर्ष व्यापक सत्याग्रह का रूप लेगा। चाहे वह शांतिमय वर्ग संघर्ष
ही क्यों न हो, या हिंसक पुरूष सत्ता के खिलाफ स्त्री मुक्ति संघर्ष ही
हो।
रचना
और संघर्ष द्वारा सामाजिक पुनर्गठन
59. संपूर्ण क्रांति विचारधारा में सामाजिक
संस्थाओं के पुनर्गठन की शर्त यह नहीं है कि इसके लिए राज्य सत्ता के रूप में
सार्वभौम ताकत हमारे पास हो, अर्थात समाज की सड़ी-गली व्यवस्था के
विध्वंस के लिए हमारे पास जो कार्यक्रम हैं उसमें यह निहित है कि वैकल्पिक
संस्थाओं द्वारा समाज का पुनर्गठन करना होगा।
समाज के पुनर्गठन की बात अगर गाँवों से ही शुरू
होती है तो यह तय है कि अन्यायपूर्ण विभाजन की संस्थायें जाति, वर्ग
तथा योनिगत गैरबराबरी और सांप्रदायिक अलगाव से टकराहट होगी, अर्थात रचनात्मक
काम की भूमिका के रूप में सामाजिक संघर्ष आगे आयेगा।
इस तरह, सं क्रां विचार
रचनात्मक काम के बारे में विशेष दृषिट यह रखता है कि यह मुख्य रूप से सत्ता
हथियाने पर निर्भर नहीं है। वरन आरम्भ से ही हम विकेनिद्रत रूप से जनता के बीच
सत्ता की ताकत खड़ी करने में जनता के स्तर से रचनात्मक कार्य और वैकल्पिक आयोजन की
हैसियत प्राप्त करने में लगे रहेंगे।
8. लोकतंत्र
(वैकलिपक समाज
व्यवस्था का राजनैतिक ढ़ाँचा)
60. हमें समस्त
आर्थिक-सामाजिक संघर्षों को एक राजनैतिक संघर्ष के रूप में विकसित करने की
अविभाज्य भूमिका को निभाना है। यह एक लोकतांत्रिक आंदोलन के निर्माण की भूमिका में
समाज के तमाम प्रगतिशील संघर्षों को ही समनिवत करने का अभियान है अर्थात समता तथा
स्वतंत्रता पर आधारित समाज की परिकल्पना, सं.क्रां. विचार के अनुसार लोकतांत्रिक
समाज निर्माण की ही परिकल्पना है। अर्थात सच्चा पूरा लोकतंत्र।
61.
संपूर्ण क्रांति के परीक्षण क्षेत्र भारत में बालिग मताधिकार पर आधारित संसदीय
लोकतंत्र की व्यवस्था कायम है। यह एक सकारात्मक अनुकूलता है। क्योंकि राजनैतिक
व्यवस्था के रूप में इससे श्रेष्ठतर कोर्इ विकल्प नहीं है। इतना ही नहीं, इसमें
सुधार और संशोधन करना संभव है और इसमें परिवर्तन हो भी रहा है। बहुधा यह परिवर्तन
इसे श्रेष्ठतर बनाने की दिशा में नहीं हो रहा है।
हम संसदीय लोकतंत्र को माध्यम मानते हैं। इसके
साथ आत्मशासी स्त्री पुरूषों का जनाधार संगठित करने की प्रक्रिया में एक नये समाज
के मूल्य प्रतिषिठत कर पायेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। परंतु इस व्यवस्था
के गंभीर दोषों और इसमे पल रही विसंगतियों का हम पहले परीक्षण कर लें। क्योंकि इसी
से ही हम गंभीरतापूर्वक लोकतंत्र के श्रेष्ठतर रूप की खोज कर पायेंगे। लोकतंत्र के
श्रेष्ठतर रूप का सृजन व्यापक जनमत के अभ्यास के दौरान ही संभव होता चलता है।
अपने देश की संसदीय प्रणाली की पहली सीमा यह है
कि यहां वयस्क मताधिकार के अंतर्गत वस्तुत: अल्पमत सरकारें हैं। इस अर्थ में कि वे
मतदाताओें की अल्पसंख्या का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ हद तक यह चुनाव प्रणाली के
दोषणूर्ण होने की वहज से है। कर्इ उम्मीदवारों के बीच विलोपन करने का अवसर जनता को
नहीं मिलता है। परंतु इससे भी ज्यादा ऐसा इसलिये है कि जनता अपने मताधिकार का उपयोग
नहीं करती है। जनता में राजनैतिक जागरूकता और क्रियाशीतला नहीं रहने पर लोकतंत्र
का निष्प्राण बना रहना स्वाभाविक है।
भारत में राज्य संचालन के केन्द्रीकृत ढ़ांचा
में भी संसदीय लोकतंत्र सीमित है। केन्द्रीकरण का ढ़ाँचा स्वयं लोकतंत्र के संदर्भ
में सबसे अनुपयुक्त ढ़ांचा होता है। इसमें राजनीतिक मंच के एक छोर पर राष्ट्रीय
राज्य तथा राज्य सरकारें और दूसरे छोर पर व्यकितगत मतदाता हैं, तथा
इन दोनों के बीच में शून्य है। जो स्थानीय संस्थायें हैं, उन्हें स्वशासन
के अधिकार बहुत कम हैं। स्थानीय संस्थाओं तथा राज्य सरकारों का भी केन्द्रीय
सरकारों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव नहीं के बराबर होता है। जनता और
राज्य के बीच ऐसी कोर्इ शकित भी नहीं है जो मध्यस्थता करे। इस स्थिति में राज्य
स्वभावत: सर्वशक्तिमान बन जाता है। इस तरह भारत में सत्ता के प्रश्न का वास्तविक
निर्णय जनता द्वारा नहीं हो कर राजनीतिक दलों तथा उद्योगपतियों एवं बैंकरों तथा शक्तिशाली
श्रमिक संघों के बीच संतुलन के द्वारा होता है। जनता संपूर्णता का प्रतिनिधित्व
करती है। जबकि संगठित हित वर्गाधारित होते हैं और तब जिन वर्गों का हित आपसी संगठन
द्वारा ज्यादा स्थान बना लेता है उनको राज्य द्वारा ज्यादा समर्थन प्राप्त होता
है।
इसी तरह अल्पसंख्यकों के प्रति विशेष दृषिटकोण
के अभाव में महज बहुमत के तंत्र को वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता
है। अर्थात भारत में लोकतांत्रिक परंपरायें अधूरी हैं और इस मायने में लोकतंत्र
अपूर्ण है। किन्तु इस कमी को इस रूप में नहीं समझा जा सकता कि भारत में लोकतंत्र
नहीं है।
संविधान में तो बहुत व्यापक महत्व के नागरिक
अधिकार मूल अधिकार के रूप में लिपिबद्ध है। परंतु इसके साथ ही प्रभावी जनमत के
अभाव में तथा लोकतांत्रिक संस्थाओें व परम्पराओं की कमजोर सिथति में भारतीय समाज
वर्गीय समाज के रूप में आर्थिक तथा राजनैतिक सत्ता के केन्द्रों से नियंत्रित होता
है। आर्थिक असमानता अकेले नहीं बलिक सहज ही राजनैतिक असमानता के साथ मेल-जोल
बढ़ाती हुर्इ होती है। इस तरह भारतीय लोकतंत्र के सामने सबसे प्रमुख विपत्ति
आर्थिक-सामाजिक तथा राजकीय क्षेत्र में मौजूद व्यापक गैरबराबरी है।
आर्थिक
सत्ता बनाम राज्य सत्ता
62. यहीं
हम आर्थिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता से सम्बनिधत विवादों को हल कर लें। सत्ता के
दोनों स्वरूपों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता रहता है - दोनों एक दूसरे को पुष्ट और
मजबूत कर रहे होते हैं। एक ओर आर्थिक सत्ता जहाँ राजनैतिक समानता के लिए हो सकने
वाले लोकतांत्रिक बनावट को पंगु बनाये हुए हैं, तो दूसरी ओर
सम्पत्ति सत्ता के स्रोत के रूप में विकसित ही इसलिए हो पायी है कि राज्य ने अपने
हस्तक्षेप द्वारा निजी सम्पत्ति का अधिकार दिया है। यही नहीं, राज्य
वर्गीय समाज के संरक्षक के रूप में पुलिस बल तथा अन्य शारीरिक बल के साथ सम्पत्ति,
सत्ता
और पूँजी के प्रवाह का नायक बना हुआ है। भारतीय समाज में उभयभावी (एक दूसरे पर,
एक
दूसरे का) प्रभाव वाले राजनैतिक, सामाजिक संघर्ष के सातत्य को
लोकतांत्रिक समाज की दिशा में संक्रमण की प्रक्रिया के रूप में प्रभावी बनाना
संपूर्ण क्रांति आंदोलन के सामने चुनौती है।
इस उभयभावी संघर्ष के दो रूप एक दूसरे के साथ
आपसी रिश्ता बनाकर ही पुष्ट होंगे। इसका एक पहलू तो होगा, जनतांत्रिक
अधिकारों की लड़ार्इ और जनता के प्रभावी राजनैतिक हस्तक्षेप के मौके को व्यापक
बनाने की लड़ार्इ। परन्तु अनिवार्य रूप से इस लड़ार्इ का दूसरा पहलू भी होगा। यह
होगा, आर्थिक सत्ता के स्रोत से टकरा रहे विभिन्न समुदायों के संघर्ष,
विभिन्न
वर्ग संघर्ष को शेषित वर्गों के पक्ष में प्रभावी बनाना। ताकि गरीब वर्गों की
साधनहीन जनता लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अबाध भागीदार बन सके। यही नहीं स्त्रियों
की सामाजिक हैसियत को बराबरी के दर्जे पर लाने की लड़ार्इ तथा लोकतांत्रिक
प्रक्रिया में समान भागीदारी, समाज और राजनैतिक प्रक्रिया में दलितों
की भागीदारी - ये अतिरिक्त प्रयास और सावधानी के कार्यक्षेत्र होंगे। लोकतांत्रिक
प्रक्रिया से बहुसंख्यक जनता को काटे रखने की स्थितियां खुद लोकतांत्र को
निष्प्रभावी बनाये रखने की कोशिश है। भारत में वर्गीय हितों का, चाहे
वो राज्यसत्ता से सम्पन्न हो या आर्थिक सत्ता अथवा दोनों से, सामान्य
हित इसमें है कि जनता की क्रियाशीलता पंगु बनी रहे। यानी हम वर्ग-संघर्ष का संचालन
करने में लगेंगे, जिससे वे आत्मशासी भूमिका में आ सकें। इस
प्रक्रिया में जाकर ही लोकतांत्रिक संघर्ष के लिये पर्याप्त बल जुटाया जा सकेगा।
और इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था को मर्यादित करने वाले तत्व, इसके कमजोर होते
जाने के खतरे तथा तानाशाही की संस्थाओं के
विकसित होते जाने और इन सबके परिणामस्वरूप तानाशाही में प्रस्थापित होने के खतरे
सीमित हो सकेंगे।
63.
इस संदर्भ में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि मौजूदा
राजनैतिक ढ़ांचे में सुधारों की संभावना को अधिकतर बढ़ाया जाए। सुधार के रूप में
जितनी प्रभावशाली नीतियों को मौजूदा तंत्र में शामिल कराया जा रहा है, उन सबका
अंतिम प्रभाव लोकतांत्रिक संस्थान में जनशक्ति के ही हक में जाएगा।
आम तौर पर सुधर जनदबाव को मानने की मजबूरी में
से मान्य होते हैं और जनदबाव से अंतर्विरोध को शासक दमन द्वारा अभिव्यक्त करते हैं।
सुधारों के लिए और दमन के खिलाफ क्रियाशील जनमत से निबटने के लिए मौजूदा तंत्र का
शासक नियमित और व्यवसिथत रूप से लोकतांत्रिक संस्थाओं को ही कमजोर करते हुए अपने
हितों को सुरक्षा देता है। यह भी देखने में आता है कि मौजूदा लोकतंत्र को नष्ट
करके शासकों द्वारा एक सर्वाधिकारवादी सत्ता को कायम करने का खतरा मौजूद है। इन
सिथतियों को ध्यान में रखकर यह और भी आवश्यक हो जात है कि दमन के खिलाफ, आर्थिक
वर्गों के खिलाफ और नीतिगत तथा बुनियादी महत्व के सुधार के लिए सतत संघर्ष को
लोकतांत्रिक संघर्ष के रूप में साझे की प्रक्रिया से चलाया जाय। इन सारी
प्रक्रियाओं के दौरान भारत के कुछ मुद्दों पर व्यापक चेतना का निर्माण किया जाए।
इन संघर्षों का प्रभावी होना ही इस बात की गारंटी होगी कि लोकतांत्र का स्थान
तानाशाही व्यवस्था नहीं ले पाएगी।
व्यापक जनसंघर्षों के माध्यम से लोकतांत्रिक
संस्थाओ को मजबूत करने के लिए वामपंथी अक्सर इसलिए तैयार नहीं हैं क्योंकि ऐसा
करने में उन्हें लगता है कि इससे बुर्जुआ लोकतंत्र को ही मजबूती मिलेगी। जो
वामपंथी संगठन अभी के चुनाव और अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस्तेमाल करने की
भूमिका से इनमें भाग लेते हैं वो भी अपने
विचार-पद्धति में मौजूदा लोकतंत्र को बुर्जुआ वर्ग का ही औजार मानते हैं। और अपने
राजनैतिक कौशल के भरोसे वामपंथी भारत में इन संस्थाओं में जिस विचार के साथ शामिल
हो रहे हैं उसमें ही निहित है कि वे इस ''औजार को अपने लिए इस्तेमाल करने से
ज्यादा इसे नष्ट करने में ही दिलचस्पी लेते हैं। इस तरह भारत में सक्रिय वामपंथी
समूहों का लोकतंत्र के प्रति दृषिटकोण का सारतत्व अंतर्विरोधी विचार में है। एक ओर
तो वे मौजूदा तंत्र को बुर्जुआ लोकतंत्र मानते हुए जनदबाव के बदौलत इसमें सुधार की
संभावना से इंकार करते हैं और यह मान बैठे हैं कि इस तंत्र की अंतिम निष्पत्ति बुर्जुआ
वर्ग की तानाशाही में होगी। इसी वजह से वे सुधार की माँगों के प्रति सक्रिय होते
हैं कि इस तैयारी में अंतत: उन्हें सर्वसत्तावान राज्य से हिंसक संग्राम में उतरना
होगा।
64.
हम लोकतांत्रिक वातावरण में जनाभिमुख परिवर्तनों की सातत्यता, प्रगतिशील
सुधारों और न्याय के वातावरण का वाहक जनता को मानते हैं। क्रियाशील जनमत के आभाव
में लोकतांत्रिक संस्थाओं का निहित स्वार्थों, शोषण की
व्यवस्था और शोशक वर्गों के हाथों में सिमटते चले जाने का स्पष्ट प्रमाण मौजूदा
भारतीय समाज में है। जनता की क्रियाशीलता अगर पंगु है तो इस वजह से समाज व्यवस्था
में मौजूद अंतर्विरोधों के मुकाबले क्रांतिकारी बदलाव कठिन बने रहते हैं। संपूर्ण
क्रांति आंदोलन सामाजिक अंतर्विरोधों से टकराते हुए शोषण की व्यवस्था और जनविरोधी
विकास नीति के खिलाफ सतत संघर्ष की प्रक्रिया है। इस तरह से हम लोकतांत्रिक
समाज-व्यवस्था के निर्माण और लोकतंत्र सुरक्षा में सतत संघर्ष से क्रियाशील जनशकित
की कल्पना करते हैं। सामाजिक परिवर्तन की मूल शकित जनशकित ही है। हमेशा ही
राज्यसत्ता का नियंत्रण जनशकित को ही करना होगा। हमेशा ही राज्यसत्ता को आत्मशासी
स्त्री पुरूषों के द्वारा क्रियाशील जनमत के अधीन रखना होगा।
लोकतंत्र अपने वास्तविक अर्थो में महज
प्रातिनिधिक प्रणाली नहीं है। यह जनभागीदारी आधारित ऐसी राजनीतिक प्रणाली है
जिसमें जनता को शांतिमय तरीके से शासकों को जांचने और हटाने का मूलभूत अधिकार है।
65.
संपूर्ण क्रांति विचारधारा अगर अभी के लोकतांत्रिक राज्य के ध्वंसावशेश व
सर्वसत्तावान राज्य की स्थापना की जरूरत को अमान्य करती है तो इसका स्वाभाविक अर्थ
यह होगा कि इस आंदोलन से प्रेरित संसदीय दल के लिए लोकतांत्रिक शासन की स्थापना का
मिशन देश पर शासन करने की उनकी क्षमता बन सकेगी। यही नहीं, जनतंत्र के नाम
पर यथासिथति को मजबूत करने वाली शकितयों और जनतांत्रिक अधिकारों को
प्रतिक्रियावादी हितों का ढ़ाल बनाने वाली शकितयों को संपूर्ण क्रांति आंदोलन
कारगर चुनौती देते रहेगा। हम इस कार्य के लिये खुद शासन में जाने की जगह
शासन-प्रक्रिया को नियंत्रित बनाये रखने हेतु क्रियाशील जनमत के साथ बने रहेंगे।
जनभागीदारी
आधारित तंत्र और जनप्रतिनिधि
66. संपूर्ण
क्रांति विचारधारा को यह मान्य है कि समस्त सामाजिक अंतर्विरोधों से मुकित की दिशा
में चल रहे अलग-अलग संघर्ष को एक लोकतांत्रिक संघर्ष की दिशा में समनिवत करना है।
इतना कर पाने की क्षमता इस आंदोलन में तभी आयेगी जब व्यापक जनता का सहभाग होगा।
अत: जनता की राजनैतिक अभिव्यक्ति का प्रश्न भी हमारे प्रयास का क्षेत्र होगा।
जनभागीदारी आधारित लोकतंत्र का संसदीय लोकतंत्र
से कोर्इ विलोम रिश्ता नहीं होता। जनता की राजनैतिक अभिव्यकित का बड़ा माध्यम आम
चुनावों में उसकी भागीदारी भी है। अभी तक संसदीय रास्तों के प्रति जो रूख हम
अखितयार करते आये हैं ,उससे आगे बढ़कर और व्यापक भूमिका का दायित्व
संपूर्ण क्रांति आंदोलन पर है। और चूंकि यह आंदोलन और इस आंदोलन का संगठन जनशकित
के निर्माण के लिये ही मूल रूप से प्रतिबद्ध है, इसलिए
निर्दलीयता इस आंदोलन की अनिवार्य विशेषता है। इस आंदोलन के लिए मूल भूमिका में
बनने वाला संगठन इसलिए निर्दलीय और स्वतंत्र संगठन होगा। परन्तु निर्दलीयता की
अवधारणा में सत्तासापेक्षता है। अतएव आम चुनाव की गति को प्रभावित करने की
अनिवार्य भूमिका से संपूर्ण क्रांति आंदोलन और संगठन को परहेज नहीं होगा। और
निर्दलीयता की अवधारणा के रहते हुए हमें संसदीय रास्तों के संदर्भ में और निर्वाचन
की प्रक्रिया निर्देशित करने के संदर्भ में सावधानी भरा कदम धरना होगा।
इसलिये हम इस जिम्मेवारी की उपेक्षा नहीं कर
सकते कि जनशक्ति की भूमिका उम्मीदवारों और शासन को नियंत्रित करने से आगे बढ़कर
है। अर्थात हमारा यह जरूरी दायित्व है कि प्रतिनिधि चुनने, भेजने तथा इनके
माध्यम से शासन चलाने में जनशकित की भूमिका को स्वीकार करे। इस भूमिका के लिये
ज्यादा स्पष्ट कौशल पर ध्यान दें। यह कार्यक्षेत्र इसलिये ज्यादा महत्वपूर्ण है
क्योंकि इसकी ओर हमारी धारा का ध्यान बहुत नहीं रहा है।
जन
उम्मीदवार
67. अगर हम
किसी जनान्दोलन से जनशक्ति का निर्माण करने के सूत्रधार बनते हैं तो उस क्षेत्र के
उम्मीदवार के नियंत्रण का न्यूनतम दायित्व हम पर आ जाता है। अगर उम्मीदवार ऐसे दल
का है जो हमारे आंदोलन के खिलाफ हैं तो उस उम्मीदवार को न चुने जाने के लिए चुनाव
के समय हमें काम करना होता है। ऐसे में इस काम के लिये दूसरे उम्मीदवार का समर्थन
भी करना हमारा दायित्व बनता रहा है। आमतौर पर हम गैर-कांग्रेसवादी मुहिम का हिस्सा
बनकर आम चुनावों में विपक्ष की मदद करते हैं। परन्तु विपक्षी उम्मीदवार अपने दल से
नियंत्रित होता है। संपूर्ण क्रांति आंदोलन क्षेत्र का समर्थन प्राप्त उम्मीदवार
बहुधा उन्हीं दलों से होता है जो संपूर्ण क्रांति विचारधारा के अनुरूप नहीं होते।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन समर्थित विपक्षी उम्मीदवार मौजूदा चुनावी प्रणाली में दलीय
नियंत्रण के अधीन ज्यादा, जनशकित् के अधीन कम होता है। व्यवहार
में भी दलों के उम्मीदवार आंदोलन के हित के पक्ष में फर्जी वक्तव्य मात्र ही देते
हैं। नैतिक रूप से आंदोलन के क्षेत्र में जनमत के बीच पैठने का अधिकार, उसे
उम्मीदवार चुन कर हम दे देते हैं। इस नैतिक अधिकार से वह जनशकित को कमजोर करने की
भरसक भूमिका निभाता है। दरअसल जनशक्ति जिन
मूल्यों पर आधारित होती है, उम्मीदवार के दल के राजनैतिक मूल्य
उससे अंतर्विरोध करते हुए होते हैं। (और व्यवहार में ऐसा ही हेाता आया है)।
68. उक्त
विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि जनशक्ति द्वारा राज्यसत्ता को नियंत्रित करने की
भूमिका का एक हिस्सा यह भी होना चाहिए कि उपयुक्त उम्मीदवार खड़े किये जायें और
चुने जायें। जसवा का निर्माण एक निर्दलीय संगठन की भूमिका में हुआ है। परन्तु जसवा,
साथ
ही साथ, संपूर्ण क्रांति की इस भूमिका की कि जनता के बीच से शासन में उपयुक्त
उम्मीदवार जायें, उपेक्षा कर के नहीं चलेगा।
राज्यसत्ता
के बारे में
69. सामाज
में राज्य जनता के ऊपर थोपी गयी एक संस्था के रूप में नहीं वरन समाज के अधीन काम
करने वाली संस्था के रूप में रखी जाय, ऐसा लक्ष्य है। क्रांति के दौरान भी
राज्यसत्ता की सीमित तथा अनिवार्य भूमिका है। राज्यविहीन समाज को रास्ता देने के
लिए राज्यसत्ता अपने क्रमिक विसर्जन को स्वयं रास्ता नहीं देती है। इसलिए क्रांति
का लक्ष्य राज्यसत्ता को हासिल करना, राज्यसत्ता को मजबूत करना, राज्यसत्ता
के माध्यम से सुधारों को लागू करना, राज्यसत्ता के सैनिक बल से प्रतिगामी
विरोध का दमन करना होगा तथा इन सब के पूरा हो जाने के बाद ही राज्यसत्ता के
विसर्जन का आधार सुदृढ़ हो जायेगा - इस तरह का चिंतन मृगमरीचिका (मोहजाल) मात्र
है।
विश्वसमाज में आधे से अधिक भाग (तत्र तथा
जनसंख्या) पर कम्युनिष्ट शासन कायम रहा है। परन्तु कम्युनिस्ट देशों में
कम्युनिस्ट इतिहासवाद की भविष्यवाणियों के अनुरूप राज्यसत्ता के विलोपन की कोर्इ
प्रक्रिया नहीं बन पायी है। उन देशों से ऐसे संकेत किंचित नहीं मिल पा रहे हैं कि
कम्युनिस्ट राज समाज के ऊपर थोपी गयी संस्था की जगह जनता के अधीनस्थ संस्था बन कर
रह जायेगी। उल्टे वे राज्य उन समाजों में एक नये शासक वर्ग के सूत्रधार बन कर
वर्गविहीन समाज की कल्पना को धत्ता बता रहे हैं।
राज्यसत्ता
का विसर्जन
70.
परिवर्तन की प्रक्रिया में राज्य शकित के क्रमिक विसर्जन की शर्त एक
प्रक्रियागत अनिवार्यता है। यह जनशिक्त के सतत नियंत्रण व दबाव द्वारा ही संभव है।
इसके लिए क्रियाशील जनमत का निर्माण करना आंदोलन की भूमिका है। क्रियाशील जनमत के
लिए स्त्री- पुरूषों की राजनैतिक भूमिका में लगातार प्रखरता आये, यह
आवश्यक है। इसकी कसौटी यह है कि नागरिकों की आत्मशासी भूमिका स्पष्ट और प्रखर हो
जाये। यह जनशक्ति के निर्माण क कार्य है।
संपूर्ण क्रांति के लिए संगठन जनमुकित संघर्ष वाहिनी जनशकित के निर्माण के लिए
प्रतिबद्ध है।
जनमुक्ति
संघर्ष वाहिनी
71.
यह एक निर्दलीय संगठन है, जो समता और स्वतंत्रता पर आधारित
लोकतांत्रिक समाज की शक्ति, जनशक्ति के निर्माण हेतु एक प्रेरक
संगठन है। अर्थात जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी (जसवा) दल से स्वतंत्र, परन्तु
सत्ता सापेक्ष संगठन है। यह क्रांति का वाहक तथा जनशक्ति के निर्माण की भूमिका में
सत्ता सापेक्ष संगठन है। अर्थात वाहक संगठन सत्ता में नहीं जायेगा, चुनाव
नहीं लड़ेगा। परन्तु यह अराजनैतिक या गैरराजनैतिक संगठन भी नहीं है। यह चुनी गयी
सरकारों को नियंत्रित रखने के लिए क्रियाशील
जनमत का निर्माण करेगा। जनशक्ति द्वारा राज्यसत्ता के नियंत्रण के लिए राजनैतिक रूप
से भी क्रियाशील रहेगा। जनशक्ति के निर्माण के लिए सामाजिक तथा राजनैतिक संघर्षों
का सूत्रधार बनेगा। संपूर्ण क्रांति जिन सामाजिक अंतर्विरोधों को चिनिहत करता है,
उनको
दूर करने के लिए चलने वाले संघर्षों से जनमत क्रियाशील होगा। इससे बनने वाली
जनशकित लोकतंत्र को सजीव बनाने वाली राजनैतिक ताकत बनेगी। इसी जनशकित को नये समाज
का आधार बनाये रखने के लिए जसवा एक निर्दलीय संगठन के रूप में बना रहेगा।
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