Saturday 8 February 2014

मेरे लिये काम नहीं



·         चारुल जी व विनय जी


इंसान जब पैरों पे खड़े हुए, दो हाथ तभी आज़ाद हुए ,
इन हाथों की मेहनत से, धीरे-धीरे आबाद हुए ,
इन हाथों से फल तोड़े थे, इनसे ही गुफा में घर बने ,
फिर पत्थर के औज़ार बने, और लोहे के हथियार बने,
हाथों ने फसलें बोई थीं, हाथों से चूल्हे आग बने,
लाखों सालों कि मेहनत से, कितने सुन्दर ये हाथ बने,
बिठोवन का संगीत बना, विन्सी जैसे फनकार बने,
बुल्लेशाहों की कलम चली,सूफी संतों ने दोहे लिखे,
पर हाथ अभी अब खाली है -२
क्योंकि इनको कोई काम नहीं -२

हल चला के खेतों को मैंने ही सजाया रे,
गेहूं,चावल,मक्के के दानों को उगाया रे ,
चूल्हा भी बनाया रे धान को पकाया रे,
रहूँ क्यों भूखे पेट रे,
की मेरे लिये काम नहीं...

मिटटी की खुदाई की भट्टी को जलाया रे,
ईटों को पकाया रे बंगला बनाया रे,
संसद का हर एक खम्भा मैंने ही उठाया रे,
सोऊ मैं फुटपाथ पे,
की मेरे लिये काम नहीं..

धागे को बनाया मैंने मीलों को चलाया रे,
ताना-बाना जोड़ के कपड़ा बनाया रे,
सपनों के रंगों से उनको सजाया रे,
मुझे कफ़न नहीं रे ,
के मेरे लिये काम नहीं...

रेल को बनाया मैंने सड़कों को बिछाया रे,
हवा में उड़ाया रे चंदा से मिलाया रे,
नाव को बनाया मैंने पानी पे चलाया रे,
मेरी न जिंदगी चले ,
की मेरे लिये काम नहीं...

शाहजहाँ के ताज को मैंने ही बनाया रे ,
मंदिरों को मज्जिदों को मैंने ही सजाया रे ,
बांसुरी सितार को मादल को बजाया  रे,
कहाँ संगीत मेरे रे ,
की मेरे लिये काम नहीं....


सपनों को सजायेंगे जिंदगी बनायेंगे,
उँगलियों को मोड़ कर हाथों को उठाएंगे,
आसमान को छुएंगे जिंदाबाद गायेंगे,
गायेंगे तब तक रे ,
की जब तक काम नहीं ,
लड़ेंगे तब तक रे की जब तक काम नहीं.........  

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